विचित्रता में एकता--------

सैल्युकस कितना विचित्र है ये देश.......। स्कूल की पढ़ाई के दौरान पढ़ा था। इस लाईन पर शोर्ट प्रश्न आया करते थे।
उस दिन रात 9 बजे करीब टी.वी. में न्यूज चैनेल खोल, खाना खाने बैठी थी। भारत के मजदूरों को अपने-अपने परिवार के साथ पलायन करते दृश्य को देख कई साल पहले इतिहास में पढ़ा यह लाईन याद आ गया। सालों, युगों पहले भारत के लिए यह बात कही गई थी। पलायन दृश्य यह साबित करता है कि आज भी यह लाईन उतना ही मायनें रखता है जब यह बात कही गई थी।
कुछेक माह पहले अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रंप साहब के स्वागत के लिये भारत ने शायद करोड़ों (100) रुपये खर्च कर दिये थे। और,आज उस देश के हजारों की संख्या में यू.पी., बिहार के मजदूरों को रोटी के लिये तरसना पड़ रहा हैं। छोटे-छोटे दूध पीते बच्चें भी भूखे निढ़ाल नजर आये। मजदूर अपनी मजबूरी को कंधे में लादकर कोसों दूर पैदल चल रहे हैं वो भी भूखे पेट।
कुछेक हजारों मजदूरों को तीन-तीन माह के खर्च का पैसा और सूखे खाने की कीट (चाहे वह किसी भी ब्रैंड या नाम से क्यों न हो) हाथों हाथ देने के लिये भी हमारे देश के कोश में पैसा उपल्बध नहीं हैं? पूरे देश को नहीं, कुछ
हजार लोगों को तत्काल संभालने की व्यवस्था न हो तो स्वागत में हमने इतना खर्च क्यों किया.....ऐसे नाजूक वक्त के लिये हमें हमेशा तैयारी रखनी चाहिए।
देखा गया है विषेश वक्त में विषेश श्रेणी को तत्काल सहायता न मिलने पर काफी असर पड़ता हैं।
ऐसे वक्त हम फंड़ की आश लगाये बैठे हैं। कब फंड़ मिलेगा तब मजबूरों को कुछ खाने को मिलेगा।
किसी ने सही कहा है, पेट की जगह अगर दूसरा पीठ होता तो, शायद.......