समझ- नासमझ..........

भारत में मुस्लिम समुदाय के दो परिवार में एक मां और बेटा। एक परिवार पढ़ा-लिखा, समझदार, योग्य, और सम्पन्न तथा दूसरा परिवार बिल्कुल इसके विपरित अनपढ़, गांव से, मजदूर, व गरीब। एक बेटा बड़ा यानी बालिक, समझदार, कमाऊ तथा दूसरा बेटा बच्चा, मासूम, नासमझ.......
हाल ही में दोनों बेटों की माताओं की मौत हो गई।
एक को समझ थी अतः वह मौत को महसूस कर अमिट दर्द में डूबा था। पर दूसरा मासूम, नासमझ था। उसे अभी जीवन-मृत्यु के सच्चाई का पता न था। अतः उसे अपनी मां के मौत का दर्द नहीं था। वह तो इन सब से बेखबर अपने बाल लीला ( खेल) में डूबा था।
समझ और नासमझ के बीच न जाने कितनी घटनाएं घट जाती हैं, कितनी समस्याऐं पैदा हो जाती हैं। जिसका असर व्यक्ति व समाज पर पड़ता हैं। जिसकी सत्यता तक हम पहुंच नहीं पाते। धर्म, अटकलें, टिका-टिप्पणी, सिस्टम्स, तौर- तरीके और न जाने कितनी बातों से लोगों की समझ में पानी फिर जाता हैं। और जो नासमझ हैं उनकी तो बात ही छोड़ दे....।
ऐसे में हम कई बार बेवश रहते हैं।
परिवार का 30 साल का बेटा, जिसे 6साल पहले दुबई में एक अच्छी कंपनी में नौकरी मिली। काफी कोशिशों के बाद अच्छी कंपनी में मोटी वेतन पर विदेश में उसे नौकरी मिली। लेकिन बेटा अपनी मां को अकेले भारत छोड़ कर नहीं जाना चाहता था। पर मां ने बेटे के भविष्य को ध्यान में रखते हुए उसे समझाया और विदेश नौकरी पर भेजा।
मां के कहने पर वह वहां गया और पिछले छः साल से वहीं रहकर नौकरी कर रहा था।
मां भारत में अकेली रह रही थी। पति का देहांत अहले ही हो चुका था। यही एक मात्र संतान थी उनकी।
बेटा अक्सर छुट्टी लेकर दुबई से भारत मां के पास आया करता था। फोन पर वहां से खबरें भी लेता रहता था। मां का हर संभव ध्यान रखता था। दुनिया में मां के अलावा उसका और कोई नहीं था। तथा मां की भी दुनिया उनका बेटा ही था।
पिछले कुछ महिनों से मां को अपनी विशेष किसी बिमारी का पता चला। पता चला बेटे को भी।
बेटा यहां अपनी मां के पास आना चाहता था। जो बीमार व अकेली थी।
पर अचानक लाकडाउन के चलते वह वहीं विदेश में ही फंस गया। आ न सका।
करीब दो महीने बाद लाकडाउन में जरा ढील दी गई और विदेशों से भारतियों को लाने की योजना बनी। हवाई जहाज यात्रा शुरू की गई।
बेटे ने तुरंत अपनी नौकरी छोड़ भारत के लिए रवाना हुआ। शायद ऐसे में उसे नौकरी से छुट्टी नहीं मिल रही थी। अतः अपनी अच्छी खासी नौकरी छोड़ भारत पहुंच गया।
औरों की तरह उसे भी 14 दिन के लिए होटल में क्वारंटाइन में रखा गया। उसमें कोई लक्षण नहीं थे, बावजूद नियमानुसार उसे क्वारंटाइन में रखा गया।
वह था भी, लेकिन अचानक से पता चला मां की तबीयत काफी बिगड़ती जा रही है। वह अपनी मां के पास जाने के लिए आवेदन पर आवेदन किए जा रहा था। पर उसे जाने नहीं दिया जा रहा था और अंततःह उसकी मां की मौत हो गई। उसे अपनी मां के अंतिम संस्कार में शामिल होने नहीं दिया गया।
बेटा मां के अंतिम दर्शन के लिए अधिकारियों को अपील करता रहा। रोया, पर उसकी एक न सुनी गई।
उसकी मां को दफना दिया गया। और एक मात्र बेटा आखिरी वक्त अपनी मां के पास नहीं जा सका। अंतिम दर्शन भी न कर पाया।
जबकि मां- बेटा कोई भी कोरोना पाज़िटिव नहीं थे।
विदेश से अपनी नौकरी छोड़ भारत आया,लक्षण न रहने के बावजूद उसे अपनी बीमार मां के पास जाने नहीं दिया गया। अंतिम बार उसे मां को देखने तक नहीं दिया गया। 30साल का इतना बड़ा बेटा रोता रहा पर किसी को कोई फर्क नहीं। सरकारी सिस्टम ने पढ़े -लिखे, समझदार बेटे को नासमझ व अपंग बना दिया। जिन्दगी भर का अफसोस उसे सताता रहेगा।
जिस पर आफ़त आती है वहीं महसूस कर सकता है।
दूसरी ओर इसी सरकारी सिस्टम ने एक नासमझ मासूम बच्चे से उसके मां को अलग कर दिया।
35 बर्षीय एक मुस्लिम महिला गुजरात के अहमदाबाद से पटना आ रही थी।
सरकार की मेहरबानी से वह औरों के साथ रेंगती ट्रेन में अपने 2 साल के मासूम बच्चे को लेकर अपने गांव आने को चढ़ी थी।
रेंगती ट्रेन का नाम , सरकार की ओर से श्रमिक स्पेशल ट्रेन रखा गया।
जैसा कि हम जानते हैं। लगातार, अन्य मजदूर पैदल चलते हुए जा रहे हैं। वे भी श्रमिक स्पेशल ट्रेन के समयानुसार अपने -अपने गांव पहुंच रहे हैं। बल्कि उन्हें रास्ते में जगह-जगह पर समाज सेवक वह हमदर्द लोग , खाना, पानी, नाश्ता ले रहे हैं। खुले आसमान के नीचे हवा में विश्राम करते हुए आगे जा रहे हैं। लेकिन रेंगती ट्रेन में न खाना,न पानी, न दूरियां और ऐसे में शौचालयों की दशा का अंदाज लगाया जा सकता है।
भूखे-प्यासे, भीषण गर्मी में भटकती और रेंगती ट्रेनों में कई घंटों व दिनों तक सफर करने से इंसान, इंसान कहलाने लायक नहीं रहता। पैदल चलने वालों के पैरों में छालें पड़ रहे थे, वे थक हार कर चूर हो जा रहे थे। यह बात सच है परन्तु रेंगती ट्रेनों के सिस्टम्स से बच रहे थे।
जो लोग रेंगती ट्रेनों से सफ़र कर रहे थे उनके पैरों में छालें तो नहीं पड़े लेकिन दिल-दिमाग में फफोले जरुर पड़ गये।
इन लोगों की बैचैनी और तड़फ को देख 1000-500 बसें अपनी जगह खड़ी खुब याद आई।
गाइडलाइंस, नियम, नीति, अलौकिक प्रचेस्टा इस तरह की तमाम कोशिशें सरकार की तरफ से बेसहारा मजदूर लोगों के लिए भी, लिए गये। परन्तु ख़ासकर मजदूर वर्ग बत्तर हालात के शिकार हो गए। जिसमें 35बर्षीय यह मुस्लिम समुदाय की महीला भी शामिल है।
दो साल के बच्चे को पता ही नहीं कि उसकी मां मर चुकी है। श्रमिक ट्रेन के वरदान से।
ना समझ बेटा खेल रहा था। प्लेटफॉर्म में पड़े अपनी मां के लाश के कफ़न रुपी चादर से बेटा खेल रहा था।
सरकार और दुनिया के सिस्टमों से अंजान था।
नासमझ था।
समझदार बेटे को अंतिम बार मां का साथ नहीं मिला और नासमझ को अंतिम बार मां का भरपूर साथ मिला।
सब सिस्टम्स का खेल है।
बच्चे का अपनी मां के शव के साथ खेलना, बच्चे और समाज को काफी भारी पड़ सकता हैं।
पिता का साया पहले ही उठ चुका था अब मां भी उसे छोड़ चल बसी। उसके भविष्य का क्या होगा?
भूख-प्यास ने उसकी मां की जिंदगी ले ली।
किसी भी सरकार को उसके मौत से तथा उसके बच्चे के वर्तमान व भविष्य से कोई मतलब नहीं।
रेलवे व सरकार पर हमें ट्रस्ट करना चाहिए। शक नहीं। क्योंकि इस गंभीर व दर्दनाक हालत पर संज्ञान ले, कहा गया कि ये महिला पिछले एक साल से बिमार थी। उसकी दिमागी हालत ठीक नहीं थी। अतः इस वजह से उसकी मौत हुई है। न की श्रमिक ट्रेन में भूख-प्यास से।
किसी भले व्यक्ति का कहना है - जिस किसी ने भी सोशल मीडिया पर यह विडियो वायरल किया उसे ऐसा न कर ,उस बच्चे को दूध पिलाना चाहिए था।
एक और किसी दूसरे भले मानव ने कहा ऐसी छिट-पुट घटनाएं हो ही सकती है। इसे तुल देने की जरूरत नहीं है। पर हां, रेलवे स्टेशन का यह विडियो हृदय विदारक है।
अब मन में सवाल पैदा होता है कि क्या मानसिक तौर पर बीमार इंसान एक राज्य से दूसरे राज्य काम पर जा सकता है? क्या मालिक मानसिक रूप से बीमार व्यक्ति को काम पर रखेगा? क्या दिमागी तौर से बीमार व्यक्ति अपने दो साल के बच्चे को लेकर दूसरे राज्य काम के सिलसिले में जा सकता है?
बच्चे को दूध पिलाने से उसकी मरी मां फिर से जिंदा हो सकती है........ ?
क्या चिट -पुट घटना और हृदय विदारक, कुछ लोगों के लिए एक सिक्के के दो पहलू हैं?
कोई जवाब नहीं मिल रहा ........।
समझ- नासमझ के बीच अपने को खड़ा महसूस कर रही हूं।
दुनिया और समाज में कैसे-कैसे लोग रहते हैं हमारे बीच.......।
रह -रह कर उस बच्चे में मुझे सरकार की छवि नज़र आती है। जो नासमझ बन भारत माता से खेल रहा है।












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