हमारे पास सूटकेस नहीं है.........

जब कभी हम कहीं बाहर किसी राज्य या देश में घूमने,किसी अन्य कारणों या फिर रोजगार के लिए जाते हैं तब हम अपने साथ कपड़े तथा कुछ अन्य सामान साथ ले जाते हैं। कई लोग अपने साथ लेपटॉप भी ले जाते हैं।
अलग-अलग घर परिवार के लोग अपना सामान सूटकेस, अटैची, बैग इस तरह के लगेजो में ले जाते हैं। जिसकी जैसी आर्थिक क्षमता रहती हैं वह उस हिसाब से लगे जो में अपना सामान ले जाता हैं। परन्तु अच्छी व किमती लगेजो की इच्छा सबों की रहती हैं।
खैर,लागडाउ के दौरान शुरू से ही हजारों गरीब प्रवासिय मजदूरों को पैदल चलते हुए पूरा देश देख रहा हैं। वे अपना सामान थैले, बैग वे बोरों में डाल कर सिर, कन्धे और हाथों में ढोकर ले जाते नज़र आये। कई मजदूरों की टोली में बच्चे बैग ढोते नज़र आये। लेकिन सूटकेस शायद किसी की हाथों में नहीं दिखा।
किसी मजदूर को जब "मजदूर सूटकेस" के बारे में पता चला तब वह गुस्से में अपना आपा खो बोला-हमे कष्ट देने से जी नहीं भरा अब हमारे कटे पर नमक डाला जा रहा हैं।
मजदूर का कहना था अगर कोई विशेष व्यक्ति हमारी मदद करना चाहता है तो उसे हमारे खिलाफ उकसाने का काम जो भी कर रहा है उसके उद्देश्य में एक बात क ना चाहुंगा- हम गरीबों के पास सूटकेस नहीं होता, बैग होता है जिसे हम थैला कहते हैं। और उसी में हम अपना सामान ले जाते हैं।
टाई वाले, पढ़ें लिखे, ए. सी. में बैठेने वाले बाबूओं के पास सूटकेस, अटैची रहता है। वह उनकी पहचान है। हम चाह कर भी सूटकेस का इस्तेमाल नहीं कर सकते। क्योंकि सूटकेस वाले बाबू हमारी ओर न ध्यान देते है न ही हमें आगे बढ़ने का मौका। हम तो क्या हमारी आने वाली पीढ़ी भी सूटकेस का इस्तेमाल नहीं कर सकती।
बच्चों को भी उस लायक नहीं बना पाते कि आगे चल कर वे उस लायक बने।
हम अपना सूटकेस नहीं ,बैग अपने आप उठा कर कष्टों को सह पैदल चलते-चलते अपने घर पहुंच ही जायेंगे। सारे लाचार मजदूर...........
दुनिया भर में फैले कोरोना महामारी के दौरान पैदल चलकर आते एक और दुःखी मजदूर ने आंसू बहाते हुए कहा- मैंने अपना भाई खोया है पलायन के दौरान दुर्घटना में.....। एक लम्बी सांस लेकर फिर बोला- हमारी सरकार ने हमें जो कष्ट और मृत्यु दिया है उसे हम जीवन भर भूल नहीं सकते। हजारों गरीब प्रवासिय मजदूर गिरते-पडते अपने गांव, अपने घर पहुंच चुके तब हमारी सरकार बचे मजदूर भाईयों को कई सिस्टम्स में ला श्रमिक ट्रेन की व्यवस्था कर हमारे कष्टों से दुनिया का ध्यान हटा अपने गलतियों पर पर्दा डालने की कोशिश में लग गए। कई मजदूरों की मौत हो गई उसके बाद मुआवजे की घोषणा की गई। पलायन के दौरान कई को बहादुरी के लिए शाबाशी दी गई। अखबारों में छपबाया गया।
लेकिन शहरों में रहकर हमें भी थोड़ी समझ हुई हैं। बाकी लाचारी और मजबूरी के आगे हमें झुके रहना पड़ता हैं।
कष्टों को महसूस न कर, किसी को उकसाना ठीक नहीं........।
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