बहुत मुश्किल है, निर्णय लेना....

कुछ लोगों के लिए मुश्किल होता है रोना तथा कुछ के लिए हंसना.... बावजूद इसके कई शोधों के मुताबिक इंसान को अपनी जिंदगी में हंसते रहना चाहिए। ताकि मन के विकार दूर रहें, शरीर चुस्त रहे, और उसका शरीर स्वस्थ रहें।
शोध के मुताबिक इंसान को दिन में कम से कम 10-15 मिनट हंसना चाहिए।
आजकल लोगों के लाइफ मैनेजमेंट में हंसी को शेट करने के लिए कृत्रिम व्यवस्था है। कितनी जगह लाफिंग  क्लाशेस चलते हैं, चुटकुलों की व्यवस्था है, टीवी में हंसी-मजाक के प्रोग्राम, सिरीयल बगैरों की भरी पूरी व्यवस्था है। ताकि इंसान अपने जीवन में हमेशा हंसे व खुश रहें। ऐसा होता भी है पर क्या सबों के लिए यह संभव होता है.....?
वैसे मेरे विचार से हंसी के दो प्रकार हैं- एक तो अपने को स्वस्थ रखने के लिए हंसना और दूसरा दूसरों को अस्वस्थ करने के लिए उस पर हंसना।
 हंसी उड़ाकर हंसना, कुछ लोग ऐसी पद्धति को भी अपनाते हैं। खुश तथा चुस्त रहने के लिए। लेकिन अधिक हंसना व्यक्ति के मौल को घटाता है।
 स्वस्थ रहने के लिए जीवन में हंसना जरूरी है पर उसका मापदंड होना चाहिए।
 दूसरे शोध के अनुसार दूसरी ओर यह भी बताया जाता है कि मन के विकारों को, अपने दुःख-दर्दो को मन में दबाकर नहीं रखना चाहिए। जिससे मनुष्य बीमार पड़ जाता है। इसलिए उसे रोकर मन को हल्ला कर लेना चाहिए। मन के दुःख को रोकर आंसुओं के सहारे उसे बाहर निकाल देना चाहिए और स्वस्थ रहना चाहिए। 
 रोने से पीड़ा दूर होती हैं साथ ही आंसुओं से आंखें भी साफ हो जाते हैं। अतः मनुष्य के लिए रोना ज़रुरी हैं।
 रोना यानी मन की पीड़ा को व्यक्त करना.....पर देखा गया है महिलाएं ज्यादा रोती हैं पुरुषों के मुकाबले......इस पर कई सवाल पैदा होते है....।
क्या पुरुषों के मन में पीड़ा नहीं होती, उन्हें अपने आंसुओं से आंखें साफ करने की जरूरत नहीं, वे अपने दुःख दबाव कर रखने से बीमार नहीं पड़ सकते.....? या मानव विरादरी में पुरुषों का रोना उनके कमजोरी की निशानी मानी जाती है....? इसलिए वे कम रोते नज़र आते हैं। 
शायद इसी वजह से पुरुषों को दिल (हार्ट) की बीमारी ज्यादा होती दिखती हैं महिलाओं की अपेक्षा।
मानव समाज में कुछ वरिष्ठ और विशेष वर्ग के लोगों में देखा गया है कि मन में पीड़ा होने के बावजूद, चाहे वो नारी हो या पुरुष अपने आंसुओं को दबाएं रखने की कोशिश करते हैं या धिरे-धिरे, चुपके-चुपके रोते हैं। अपनी पीड़ा वह आंसू व्यक्त नहीं करते। शायद यह सभ्यता के तहत है। 
इसी समाज में एक ओर तरह का वर्ग हैं जो अपनी पीड़ा पर जोर-जोर से, चिल्लाते हुए, बोल-बोल कर रोते हैं। ख़ासतौर पर महिलाएं। ये खुलकर रोती हैं।
हमारे बीच कितने ऐसे लोग हैं जो दूसरों के दुःख से आहत हो अनायास ही आंखों में आंसू ले आते हैं।
कोई घटना सुन रो देते हैं। सिरीयल देख टीवी के सामने बैठे-बैठे रोते हैं। इस तरह से महिलाएं आंसू बहाती है पर पुरुष नहीं। 
कहते हैं पुरुष जाती कमजोर नहीं मजबूत होती हैं।
लेकिन उनके स्वस्थ का क्या ...?
इंसान की जिंदगी की स्वाभाविक प्रतिक्रियाओं में हंसना और रोना भी हैं जो शायद शोधों पर निर्भर नहीं। क्योंकि साधारणतः हंसने और रोने के लिए माहौल, मापदंड, कृत्रिम बातें आ जाती हैं।  ये दोनों हमारे मौल तथा महत्व को दर्शाते हैं।
मन के विकार को दूर करने के लिए हंसना और इसी विकार को दूर करने के लिए रोकर मन को हल्ला करना चाहिए......मन की पीड़ा को दूर करने के लिए आखिर क्या करें....? हंसे या रोये.......?
 ....... कईओं के लिए, बहुत मुश्किल है निर्णय लेना।
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