जीने की कला---------

पता पूछती हुई अपने एक विद्यार्थी के ताऊजी के घर पहुंची। उसके 85बर्षीय दादी के बैठक में। ताऊजी के वहां वे लोग मुझे पहचानते थे। अतः महिलाओं की ओर यानी जहां औरतें बैंठी थी उस ओर मुझे जाने को कहा गया। शोक निवासी स्थान
के एक ओर कमरे में कई महिलाएं बैठीं थी। दरवाजे पर खड़ी हो चारों ओर अपनी नज़र दौड़ाते हुए मैंने उसकी (छात्र) मम्मी को ढूंढना शुरू किया। 
धीमे से कानों में आवाज आई- मिस....मिस....। मेरी नज़र उस ओर गई। मैं हल्के से सांकेतिक सिर हिलाकर मुस्कुराई।
उसकी मम्मी प्रेमा जी हाथों के इशारे से मुझे अपने पास आने का इशारा की, साथ ही सिर हिलाकर, आंखों से न मुस्कुराने का संकेत भी दिया। उनके हिसाब से ऐसे माहौल में मुस्कुराना सही नहीं। मैं तुरंत समझ गई। उनका कहना सही था। पर मेरे होंठ हल्के से हिले थे। कारण था वेलकम का....जो उन्होंने मुझे किया था और मैंने उसे स्विकारा था। बस...। लेकिन मेरे लिए यह बड़ी विचित्र बात थी कि जिंदा रहते हुए जिन्हें ले हमेशा रोते रहते थे उनके मौत पर भी......
85बर्षीय दादी की जिंदगी पिछले 10 सालों से अपने पति के गुजरने के बाद से ही तीन हिस्सों में बट चुकी थी। अपने तीनों बेटों की गृहस्थी में उन्हें बारी बारी से रहना पड़ता था। इस उम्र में उन्हें अपने किसी एक बेटे के घर निश्चित हो रहने की इजाजत नहीं थी। कभी इस बेटे के, कभी उस बेटे के। बेटे- बहू़ओं के लिए वृद्धा बोझ सी बन गई थी। बेटों के भटकती हुई 85बर्ष की उम्र में वो वृद्धा दुनिया छोड़ चली गई। उनके चले जाने से भावुक हो सब रोने बैठ गये। 
कृतिम भावना के साथ कृत्रिम आंसू....... समझना मुश्किल सा हो गया था कि इसे सामाजिक कहेंगे या जिनके की कला......। 
पास जाते ही प्रेमा जी मेरा हाथ पकड़ सिसकियां लेने लगी। रोती हुई बोली- मिस... मम्मी जी रहती तो घर भरा-भरा लगता था। कई बार उनके भरोसे बच्चों को छोड़ बजार चली जाती थी। आप पढ़ाने आएगी तब भी उनके भरोसे बच्चों को छोड़ जाती। 
..... उसके ताऊजी या चाचाजी के वहां से मम्मी जी कब आएगी यही इंतजार रहता था। पर अब.....
अब ऐसा नहीं होगा.....वो रुक-रुक कर इस तरह की बातें कर रही थी। अगल-बगल भी कुछ ऐसा ही मिलता जुलता सुनाई पड़ रहा था। 
यह सब देख सुन मैं स्तब्ध थी। उनके घर मेरा आना जाना पिछले कुछ सालों से था। टियुशन पढ़ाने के दौरान प्रेमा जी कभी कभार बातें कर लिया करतीं थीं। तब की बातें और आज की बातों में कोई मेल नहीं था। 
मन ही मन एक सवाल (गणित) हल करने लगी, लेकिन उसका उत्तर बार-बार गलत आ रहा था। लाख कोशिशों के बावजूद गलत उत्तर निकल रहा था। वैसे मैं गणित में कमजोर थी शायद इसी कारण उत्तर गलत आ रहा था या मुझमें नोलेज कम थी....पता नहीं.....।जो भी हो कुछ देर वहां रुक कर चली आई।
करीब 15दिन बाद मैं, प्रेमा जी के वहां बच्चों को पढ़ाने गई। मैंने वेल बजाई। प्रेमा जी हंसती हुई दरवाजा खोली और हंसते हुए ही बोली- आईए मिस...आईऐ.....।
दरवाजे के खुलते ही मेरे कानों में कई हंसी की गुंज आई। जबकि इस बार मैं काफी सीरियस हो गई थी। कारण उस दिन की सिख तथा दादीजी को गुजरे अभी कुछ ही दिन हुए थे। पर यहां का माहौल मुझे कुछ ओर मिला...
आप बैठीऐ.... मैं बच्चों को भेजती हूं.....कहती हुई वह भी साथ कमरे में आई। उन्होंने मुझे बैठाते हुए यह भी बताया कि मायेके से उनकी भाभी और बहन आई है। इतना कह हंसती हुई प्रेमा जी बच्चों को बुलाने गई। और मैं बैठे-बैठे सोचने लगी इतने कम समय में हंसी हावीं हो गई आंसुओं पर.... हमारे बीच के इंसान को इतनी जल्दी भूला देना या भूला पाना कैसे संभव है? जिंदगी आगे बढ़ने का नाम है परन्तु ...... स्मृतियां......?
लोग, इतनी जल्दी अपने जीवन को कैसे उबार पाता है.....?
 दुनिया में ऐसे भी लोग हैं जो जीवन की सत्यता को स्वीकार कर भावुक नहीं होते। शायद ऐसे लोग प्रेक्टिकल होते हैं तभी तो खुश रहते हैं। 
मुझे लग रहा है मैं पढ़ाने नहीं, बल्कि जिंदगी का पाठ पढ़ने आई हूं। मैंने वास्तविक, सांसारिक, सामाजीक का पाठ पढ़ा। खुश रहना तथा आगे बढ़ना ही जीवन है। नेगेटिव में पोजेटिव छुपे होते हैं....।
ऐसे लोगों से जीने की कला सिखनी चाहिए जो मैंने सीखा.......।

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