सप्तवार, वृहस्पतिवार व्रत कथा-----

वृहस्पतिवार को वृहस्पेश्वर महादेव जी का पूजन होता है।इस दिन पीले रंग का विशेष महत्व माना जाता है। इसलिए पीले वस्त्र धारण कर, पीले रंग के  पुष्प से पूजन कर, पीला भोजन ग्रहण करना चाहिए। केला, हल्दी, चने की दाल का इस पूजा में होना चाहिए। माथे पर पीले रंग के चंदन का लेप या तिलक लगाना फलदाई होता हैं। वृहस्पतिवार के दिन पीत रंग के प्रयोग से वृहस्पति जी अत्यंत प्रसन्न होते है।‌
इस दिन व्रत व पूजन करने से पाप नष्ट होते हैं तथा धन और विद्या का लाभ होता हैं। जीवन में सुख-शांति बनी रहती हैं। संसार में खूब फलता-फूलता हैं।
वृहस्पतिवार की पूजा और व्रत स्त्रियों के लिए अति आवश्यक हैं। इस दिन कई लोग लक्ष्मी जी की पूजा भी करते हैं।
वृहस्पतिवार के दिन पूजन विधि अनुसार व्रत कर कथा सुननी या पढ़नी चाहिए। जो इस प्रकार है.....
किसी समय की बात है, एक बार इंन्द्र देवता जी बड़े अहंकार से अपने सिंहासन पर बैठे थे। उनकी सभा में बहुत से देवता, ऋषि, गन्धर्व, किन्नर आदि उपस्थित थे।
अब सभा में वृहस्पति जी महाराज आऐ। उनके सम्मान में सभा में उपस्थित सभी खड़े हो गए परन्तु इंन्द्र अपने अहंकार के मारे खड़े नहीं हुए। अपना अनादर समझते हुए वृहस्पति जी महाराज वहां से चले गए। उनके जाने के बाद इंन्द्र को पश्चाताप हुआ, कि मैंने गुरु जी महाराज का अनादर किया। मुझसे बड़ी भूल हो गई। उनके आशीर्वाद से ही मुझे यह वैभव मिला है। उनके क्रोध से मेरा यह सब कुछ नष्ट हो जाएगा। अतः मुझे उनके पास जाकर क्षमा मांग लेनी चाहिए। तब उनका क्रोध शांत हो जाएगा। और मेरा कल्याण होगा तथा मेरा वैभव बना रहेगा। 
अपने मन में ऐसा विचार कर इंन्द्र जी उसी समय वृहस्पति जी महाराज के पास गये। 
अपने योगबल से वृहस्पति जी महाराज जान गये कि इंन्द्र मुझसे क्षमा मांगने आ रहा है। 
वे अपने अनादर के कारण क्रोधित थे। अतः उनसे मिलना नहीं चाहते थे। इसलिए अंन्तर्धान हो गए।
वृहस्पति जी महाराज के स्थान में जाकर इंन्द्र ने देखा वे वहां नहीं है तो निराश हो लौट आए।
इधर जब दैत्यों के राजा वृषपर्वा को इस बात का पता चला तो उसने अपने गुरु शुक्राचार्य की आज्ञा से इस बात का फायदा उठाया और इंन्द्र की पूरी को चारों ओर से घेर लिया। 
इंन्द्र अपने गुरु वृहस्पति जी की कृपा न पाने के कारण दैत्यों से हारने लगे। अब इंन्द्र जी ब्रह्माजी के पास गए तथा उन्हें विनयपूर्वक सब सुनाया और कहा- महाराज दैत्यों से किसी प्रकार बचाईये।
ब्रह्माजी बोले- तुमने, वृहस्पति जी महाराज को क्रोधित कर बहुत बड़ा अपराध किया है। अब तुम्हारा कल्याण तभी हो सकता है जब तुम त्वष्टा ब्राह्मण पुत्र विश्वरुपा को अपना पुरोहित बनाओगे। जो बड़ा तपस्वी और ज्ञानी है। 
ब्रह्माजी के ये वचन सुनकर इंन्द्र, त्वष्टा ब्राह्मण के पास गये और विनती भाव से बोले- अपका पुत्र विश्वरुपा बड़ा तपस्वी और ज्ञानी है। आप उसे मेरा पुरोहित बनने की आज्ञा दिजिए। जिससे हमारा कल्याण हो....। 
त्वष्टा ब्राहण ने उत्तर दिया- पुरोहित बनने से तपोबल घट जाता है परन्तु तुम बहुत विनती कर रहे हो इसलिए मेरा पुत्र तुम्हारा पुरोहित बनकर तुम्हारी रक्षा करेगा। 
अपने पिता की आज्ञा से विश्वरुपा पुरोहित बनकर ऐसा यत्न किया कि इंन्द्र, दैत्यों के राजा वृषपर्वा को युद्ध में जीत कर अपने इंन्द्रासन पर स्थित हुए। उनका कल्याण हुआ।
त्वष्टा ब्राह्मण पुत्र विश्वरुपा के तीन सिर थे। जिसमें तीन मुख थे। एक मुख से वह सोमवल्ली लता का रस निकालकर पीते थे, दूसरे मुख से मदिरा पीते थे और तीसरे मुख से अन्न का भोजन ग्रहण करते थे।
      दैत्यराज को जीत जाने के कुछ दिन उपरान्त इंन्द्र, विश्वरूपा से बोले- मैं अपकी कृपा से यज्ञ करना चाहता हूं......।
इंन्द्र की आज्ञानुकसार विश्वरुपा पुरोहित ने यज्ञ प्रारम्भ किया। 
यज्ञ प्रारम्भ होने के उपरांत, एक दिन किसी दैत्य ने विश्वरुपा पुरोहित के पास जाकर कहा- तुम्हारी माता दैत्य की कन्या है। इस कारण हमारे कल्याण हेतु एक आहुति दैत्यों के नाम पर भी दे दिया करो तो अति उत्तम बात होगी। 
विशवरुपा ने उस दैत्य का कहा मान कर आहुति देते समय दैत्यों का नाम भी धीरे-धीरे लेने लगे। और इस कारण यज्ञ करने से भी देवताओं का तेज नहीं बढ़ा। जब इंन्द्र को इस बारे में पता चला तो क्रोधित होकर उन्होंने विश्वरूपा पुरोहित के तीनों सिर काट डाले।
सोमवल्ली पीने वाले मुख के सिर से कबूतर, मदिरा पीने वाले मुख के सिर से भंवरा और अन्न भोजन ग्रहण करने वाले मुख के सिर से तीतर बन गया।
विश्वरुपा पुरोहित के मरते ही इंन्द्र पर ब्रह्महत्या का पाप लग गया।
एक वर्ष तक पुरश्चरण (मंत्र-जप) करने पर भी ब्रह्महत्या का पाप नहीं छूटा तो सब देवताओं के प्रार्थना करने पर ब्रह्माजी, वृहस्पति महाराज जी के सहित वहां आए। 
उन्होंने उस ब्रह्महत्या के चार भाग किये।
 पहला भाग पृथ्वी को दिया। इस कारण धरती कहीं ऊंची तो कहीं नीची और कहीं बीज बोने के लायक भी नहीं होती। परंतु साथ ही यह वरदान भी दिया कि जहां धरती में गड़ढा होगा कुछ समय बाद वह गड़ढा स्वंय ही भर जायेगा।
 दूसरा भाग वृक्षों को दिया। जिससे उनमें से गोंद आदि बनकर बहता हैं। वृक्षों को भी वरदान दिया। वे ऊपर से सूख जाने पर भी जड़ फिर से फूट जायेगी।
 ब्रह्माजी ने ब्रह्महत्या का तीसरा भाग स्त्रियों को दिया। इस कारण स्त्रियां हर महीने रजस्वाला (मासिक-धर्म) होती हैं। साथ ही उन्हें संतान प्राप्ति का वरदान दिया।
 ब्रह्महत्या का चौथा भाग जल को दिया। जिससे जल के ऊपर फेन और सिवार (बुलबुलें) आ जाते हैं।जल को भी वरदान दिया।जिस चीज में भी जल को डाला जायेगा उसका वजन बढ़ जायेगा।
 इस प्रकार इंन्द्र को ब्रह्महत्या के पाप से मुक्त किया गया।
 जो भी मनुष्य इस कथा को सुनता वह पढ़ता हैं, वृहस्पति जी महाराज की कृपा से उसके सारे पाप नष्ट होते हैं तथा उसका कल्याण होता है.....।
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