हिन्दी माह के त्यौहार व व्रत कथा.....

कार्तिक मास---
             यह माह त्यौहारों से भरा हैं। कार्तिक पूर्णिमा को शरद पूर्णिमा भी कहते है। इस पूर्णिमा में भगवान की पूजा खीर से की जाती है। 
कार्तिक मास के अनेकों त्यौहारों व व्रतों में तुलसी और आंवला की पूजा भी की जाती हैं.......।
पहले तुलसी माता जी की बात करते हैं। मान्यता अनुसार पूरे कार्तिक माह तुलसी जी को जल चढ़ाते है, भोग लगाते है और मंगल गीत गाते हैं। तत् पश्चात् इनकी कहानी सुनते हैं......।
जो इस प्रकार है- महिलाएं इस माह तुलसी माता को सिंचने (जल चढ़ाने) जाती। सब महिलाऐं जल चढ़ा, पूजा कर, मंगल गीत गा चलीं जाती हैं पर एक बुढ़ी मां नहीं जाती। वह रोजना तुलसी जी से कहती है- "तुलसी माता सत की दाता, मैं तुझे रोज सिंचती हूं, तु मेरा निस्तार कर, मुझे पीताम्बर की धोती दे, मीठा-मिठा गास दे, बैकुंठ बांस दे, चटपट मौत दे, चंदन की लकड़ी दे, दाल-चावल खाने दे, कृष्ण जी का कांधा दे....।"
बुढ़ी मां रोजना तुलसी माता को सिंचने जाती और रोज उनसे यही कहती।
रोज-रोज यह सुन माता तुलसी चिंता में पड़ गई। उन्हें चिंतित देख भगवान् बोले- तुम्हारे पास इतने लोग आते हैं, तुम्हें जल चढ़ाते हैं, तुम्हारी पूजा-पाठ करते हैं, भोग लगाते हैं, मंगल गीत गाते हैं फिर भी तुम इतनी उदास और चिंतित क्यों हो? 
तुलसी जी बोली- क्योंकि एक बुढ़ी मां आती है, मुझे जल चढ़ाती है और रोज उक्त (तुलसी माता सत की दाता....... कृष्ण जी का कंधा दे।) बातें कहती हैं। मैं, उनको उनकी मांगी हुई सब कुछ दे सकती हूं पर कृष्ण जी का कांधा कहां से दूं....?
यही सोच में चिंतित हूं।
इस पर भगवान जी बोले- तुम बुढ़ी मां से कह देना वो मरेगी तब मैं कृष्ण जी का कांधा भी दिलवा दूंगी।
तुलसी माता ने ऐसा ही कहा। 
यह सुन कुछ दिन बाद बुढ़ी मां मर गई। अंतिम क्रिया के लिए सब उन्हें उठाने लगे पर वह नहीं उठी। किसी से भी नहीं उठी। क्योंकि बुढ़ी मां का शव भारी हो गया था। इस पर सब कहने लगे- पाप की माला फेरती रही इसलिए पाप से इतनी भारी हो गई है। सो किसी से भी उठ नहीं रही। इतने में भगवान बुढ़े ब्राह्मण के वेश में वहां आए और सबों से पूछने लगे- यहां इतनी भीड़ क्यों हो रखी हैं? सब बोले- एक बुढ़ी मां थी। जो मर गई। पापी थी, जो किसी से उठ नहीं रही। तब भगवान सबों से बोले मुझे इसके कान में एक बात कहने दो तब यह उठ जायेगी। 
इस पर सबों ने बुढ़े ब्राह्मण से कहा- तुम भी अपने मन की कर लो। हमसे तो उठ नहीं रही।
भगवान, बुढ़ी मां के कानों में जाकर वो सारी बातें कहने लगे जो उसने तुलसी माता से कहीं थी।
...... बुढ़ी मां तुने मुझे सिंचा, मैं तेरा निस्तार करूं, पीताम्बर की धोती ले, मीठा-मीठा गास ले, बैकुंठ का बास ले, चट-पट मौत ले, चंदन की लकड़ी ले, दाल-भात खा ले, कृष्ण जी का कांधा ले........।
इतनी बातें सुन बुढ़ी मां हल्की हो गई और भगवान उन्हें अपने कांधे पर उठा ले गए। उनकी मुक्ति हो गई। 
यह देख सब कहने लगे- भगवान आपने बुढ़ी मां की जिस तरह मुक्ति की, हमारी भी उसी तरह मुक्ति करना। उन्हें जैसा कांधा दिया हमें भी वैसा कांधा देना। 
जय तुलसी माता जी की........ तुलसी जी की कथा यहीं समाप्त होती है........।
      
        अब बात करते है आंवला पूजा की। कार्तिक मास में आंवला नवमी भी आती है। प्रथा अनुसार आंवले के पेड़ की पूजा की जाती है। 
 रोली, चावल, धूप-दीप, बतासा, आंवला (फल), दक्षिणा आदि से पूजा होती है। फिर 108 बार आंवले पेड़ की परिक्रमा की जाती है। जो नहीं सकते वे सिर्फ 8बार ही परिक्रमा लगाते हैं। 
108 परिक्रमा में गलती न हो जाए इसलिए लोग
108कुछ छोटी-छोटी चीजों (बतासा,टोफी,सिक्के) को साथ ले परिक्रमा करते हैं।एक परिक्रमा पूरी होने पर आंवले पेड़ के समाने उस एक चीज (जो अपने पास रखते हैं) को डालते हैं और इस तरह बिना गलती के 108 परिक्रमा पूरी करते हैं।
 इस दिन आंवला खाना भी जरूरी होता है। इसके बाद सब आंवला नवमी की कथा सुनते हैं।
 जो इस प्रकार है........
        एक आंवलिया राजा थे। वे रोज सोने का सवा मन आंवला दान कर ही भोजन ग्रहण करते थे। बिना दान किए खाना नहीं खाते थे। 
        एक दिन उनके बेटे और बहू ने सोचा कि ये रोजाना सोने का सवा मन आंवला दान करेंगे तो, इस तरह सब धन समाप्त हो जाएगा। यह सोच बेटा अपने पिता के पास गया और बोला- रोज इस तरह दान करके आप सारा धन लूटा देंगे। इसलिए अब आगे और दान नहीं करेंगे।
 राजा और रानी अपने बेटे की बात सुनकर बहुत दुःखी हो गये और एक जंगल की ओर चले गए। वहां उन्हें भूखे-प्यासे सात दिन हो गए। क्योंकि बिना दान किए वे भोजन ग्रहण नहीं करते अतः सात दिनों तक जंगल में भूखे-प्यासे बैठे रहे।  तब भगवान जी सोचने लगे अगर मैं इनका ध्यान न रखूंगा तो दुनिया में मुझे कोई मानेगा नहीं। यह सोच भगवान् राजा के सपने में आए और बोले- तू उठ, और देख पहले जैसा तेरा राज-पाट हो गया है।  आंवले का एक पेड़ भी उग आया है। उठ और आंवला दान कर भोजन ग्रहण कर लें। 
 राजा और रानी उठे और देखा कि पहले से भी ज्यादा राज-पाट हो गया है तथा सोने का एक आंवला पेड़ भी उग आया है। 
 वे लोग फिर से रोजाना सोने का सवा मन आंवला दान करने लगे। राजा-रानी दोनों अब बहुत सुख से रहने लगे। उधर बेटा और बहू पर मुशिवतों का पहाड़ टूट पड़ा। खाने के लाले पड़ गए। उनकी दुर्दशा देख आस-पास के लोगों ने उनसे कहा- जंगल में एक आंवलिया राजा रहते है। तुम दोनों उनके पास जाओ वे तुम्हारे दुःख दूर कर देगें।
 वे दोनों वहां गये तो रानी ने उन्हें ऊपर से देख लिया। और राजा से बोली- इन्हें आप काम पे रख लेना। इनसे कम काम करवाना और मजूरी ज्यादा देना। राजा ने वैसा ही किया। 
 एक दिन रानी अपनी बहू को बुलाकर बोली- मेरा सिर निहला दो। बहू सिर निहलाने लगी तो बहू के आंसू रानी के पीठ पर गिरा। इस पर रानी पूछी- तुम रो क्यों रही हो? 
 बहू बोली मेरी सास के पीठ पर भी ऐसा मस्सा था। जैसे आपके पीठ पर है। वो भी रोज सवा मन सोने का आंवला दान करतीं थीं। हमने उन्हें दान करने नहीं दिया और घर से निकाल दिया। 
 तब रानी बोली- हम ही तुम्हारे सास-ससुर हैं। तुम लोगों ने हमें घर से निकाल दिया पर भगवान ने हमारा ध्यान रखा।
 कहानी सुन सब महिलाऐं बोली- से भगवान्, जिस तरह से अपने राजा-रानी का ध्यान रखा उसी तरह आप सबों का ध्यान रखना।
          इस तरह से आंवला नवमी की कहानी समाप्त होती है.......।

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