सप्तवार, शनिवार व्रत कथा------

शनिवार के दिन शनिश्चर देव की पूजा की जाती है। उन्हें काला तिल, काले वस्त्र, लोहा, तेल, उड़द आदि विषेश पसंद हैं। इसलिए इनकी पूजा में इन चिजों को प्रयोग में लिया जाता हैं। 
शनिवार के दिन व्रत रखने से दशा का कष्ट दूर होता है। इस दिन काला वस्त्र धारण कर मंत्र जप करने से विशेष फल प्राप्त होता है। "ओम् शुंग शनैश्चराय नमः" इस जप को करना चाहिए।
शनिश्चर देव नवग्रहों में सर्वोपरि है। इसलिए शनिवार के दिन व्रत रखकर इनकी पूजा करनी चाहिए तथा कथा भी सुनाना चाहिए।
जो इस प्रकार से है-  एक समय की बात है।नौ ग्रहों में झगड़ा इस बात पर हो गया कि हममें बड़ा कौन है?
सब अपने को बड़ा कहते थे। जब आपस में निश्चय नहीं हो सका तब वे सब के सब न्याय के लिए इंन्द्र के पास गए। और उनसे यह बताने को कहा गया कि, नवग्रहों में बड़ा कौन है? 
इन्द्र घबरा गये और अपने असामर्थ की बात कह एक उपाय बताया। उन्होंने कहा- इस समय पृथ्वी पर राजा विक्रमादित्य है जो दूसरों के दुःखों को दूर करने वाले है। इसलिए उन्हीं के पास जाओ, वही तुम्हारा दुःख दूर करेंगे। 
यह सुन सभी ग्रह भूलोक के राजा विक्रमादित्य की सभा में अपना प्रश्न लेकर उपस्थित हुए।
प्रश्न सुनकर राजा चिंता में पड़ गये। वे सोचने लगे मैं जिन्हें अपने मुंह से छोटा कहूंगा वही क्रोध करेंगे। फिर उन्होंने एक उपाय सोचा और नौ धातुओं की नौ आसन बनवाए। जिसमें सोना, चांदी, कांसा, पीतल, सीसा, रांग, जस्ता, अभ्रक और लोहा था।
अब सब आसनों को क्रम में बिछाए गए। सबसे पहले सोने का और सबसे पिछे लोहे का आसान बिछाया गया। इसके बाद राजा विक्रमादित्य ने नौ ग्रहों से कहा- आप सब अपने-अपने आसनों पर बैठ जाईए। जिसका आसन सबसे आगे, वह बड़ा और जिसका आसन सबसे पिछे, वह छोटा माना जाएगा। 
चूंकि लोहा सबसे पिछे था और वह शनिदेव का आसान था इसलिए शनिदेव ने समझ लिया कि राजा ने, मुझको सबसे छोटा बना दिया है। इस पर शनिदेव को बड़ा क्रोध आया। उन्होंने कहा-राजा! तू मेरे प्रराक्रम को नहीं जानता। सूर्य एक राशि पर एक महीना, चन्द्रमा दो दिन, मंगल डेढ़ महीना, वृहस्पति तेरह महीने, बुध और शुक्र एक-एक महीने तथा राहु और केतु उल्टे चलते हुए केवल अट्ठारह महीने एक राशि पर रहते हैं। परन्तु मैं एक राशि पर तीस महिनों तक रहता हूं। बड़े-बड़े देवताओं को मैंने दुःख दिये है.....। राजा! सुनों, राम जी को मेरी साढ़े साती लगी तो वनवास हो गया और रावण पर लगी तो उसके कुल का नाश कर दिया। इसलिए हे राजा! तू अब सावधान रहना। 
इस पर राजा बोले- जो कुछ भाग्य में होगा देखा जायेगा।
उसके बाद अन्य ग्रह तो बड़ी प्रसन्नता के साथ चले गए परन्तु शनिदेव क्रोध के साथ वहां से सिधारे।
कुछ समय व्यतित होने पर राजा विक्रमादित्य को शनि की साढ़ेसाती लगी। 
शनिदेव घोड़ों के सोदागर का रूप धारण कर राजा की राजधानी उज्जेन में आये। अच्छे-अच्छे नस्लों वाली घोड़ों को दिखाया। उनमें से एक अच्छा सा घोड़ा चुनकर, राजा सवारी के लिए चढ़े। घोड़े की पीठ पर चढ़ते ही घोड़ा इतनी जोरों से भागने लगा कि राजा उसे अपने वश में न रख सकें। घोड़ा जंगल में जाकर राजा को वहां छोड़ अंतर्धान हो गया। वे अपने शहर के मार्ग से भटक गए।
      एक ग्वाले से राजा ने समीप के शहर का मार्ग पूछा। उसनेे बता दिया। इस पर प्रसंन हो राजा उसे अपने अंगुली की अंगूठी दे दी और आगे चल दिए। 
      वहां जाकर एक सेठ की दुकान पर बैठ गये। कुलिन मनुष्य समझकर सेठ ने उन्हें पानी पिलाया।
      भाग्यवश उस दिन उनकी दूकान पर बहुत अधिक बिक्री हुई। सेठजी उन्हें भाग्यपुरुष समझकर अपने घर भोजन करवाने ले गए। 
भोजन करने के पश्चात् अत्यंत आश्चर्य तरीके से उन पर सेठ के हार चुराने का आरोपी लगा।
चोरी के आरोपी में उन्हें वहां के राजा के सामने उपस्थित किया गया। राजा की आज्ञा से उसके हाथ-पैर काट दिये गये। इससे उसकी ऐसी दशा हुई कि यदि कोई उसके मुंख में पानी डालें तो वह पानी पिये और यदि कोई उसके मुंख में भोजन डाले तो वह खाए।
इस तरह कुछ काल व्यतित होने पर, एक तेली उसको अपने घर ले गया। और उसे अपनी जुबान से बैल हांकने के लिए कोल्हू पर बैठा दिया।वह कोल्हू पर बैठा-बैठा बैल हांकता रहा।
कुछ समय पश्चात राजा विक्रमादित्य की ग्रह दशा समाप्त हुई। 
एक रात वर्षा ऋतु के समय वह (राजाविक्रमादित्य)
"मल्हार राग" गाने लगा। 
उस शहर के राजा की कन्या उसका राग सुन मोहित हो गई। उसनेे प्रण लिया चाहे जो कुछ भी हो जाए मैं इसी से विवाह करुंगी। 
उसके फैसले से सभी दुःखी हुए। उसे समझाया पर वह नहीं मानी। 
भाग्य के लिखे को कोई टाल नहीं सकता। ऐसा सोच आखिर, राजा ने अपनी कन्या का विवाह उसी (विक्रमादित्य) से करवा दिया। 
रात्रि को जब विक्रमादित्य और राजकुमारी सोये थे तब आधीरात के समय शनिदेव, विक्रमादित्य के सपने में आए और बोले- राजा! कहो, मुझे छोटा बताकर तुमने कितने दुःख उठाये? 
इस पर राजा विक्रमादित्य ने अनेक प्रकार से क्षमा मांगी। इससे शनिदेव प्रसन्न हो, राजा के हाथ-पैर वापस दिये। तब राजा ने प्रार्थना कि की, महाराज! जैसा दुःख अपने मुझको दिया ऐसा और किसी को न देना। 
शनिदेव ने राजा की प्रार्थना स्वीकार की और कहा- जो मनुष्य मेरी कथा सुनेगा उसको मेरी ग्रह दशा में कभी किसी प्रकार का दुःख या क्लेश नहीं होगा। जो नित्य मेरा ध्यान करेगा, चींटियों को आटा डालेगा उसके सब मनोरथ पूर्ण होंगे। इतना कह शनिदेव अपने धाम को चले गए।
कुछ दिनों बाद विदा लेकर दहेज़ में प्राप्त अनेक दास-दासी, रथ-पालकियों सहित राजा विक्रमादित्य उज्जैन की तरफ चल दिए।
जब शहर में पधारे तो भारी उत्साव मनाया गया। रात्रि को दीपमाला जलाई गई। 
दूसरे दिन राजा विक्रमादित्य ने सारे शहर में यह सूचना कराई कि शनिश्चर देवता नवग्रहों में सर्वोपरि है। मैंने इनको छोटा बताया जिससे मुझको दुःख प्राप्त हुआ।
इसीलिए शनिदेव को सर्वोपरि मान सदा इनकी पूजा, व्रत और कथा होती रहनी चाहिए। जिससे सभी अनेक सुखों को भोगते रहें।
जो कोई शनिवार के दिन शनिश्चर जी की कथा पढ़ता या सुनता है, उसके सब दुःख दूर हो जाते हैं।
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