सप्तवार, शुक्रवार व्रत कथा......

पिता गणेश जी भगवान और माता रिद्धि-सिद्धि की पुत्री संतोषी माता का व्रत और पूजन शुक्रवार के दिन किया जाता है। इस दिन सफेद भोजन ग्रहण करना लाभकारी होता हैं। 
इनकी पूजा में गुड़ और चने का भोग लगाया जाता हैं। माता को खटाई पसंद नहीं है इसलिए इस दिन व्रतकारियों को खटाई का त्याग करना चाहिए। 
संतोषी माता क्षमा, खुशी और आशा की प्रतिक मानी जाती है।
शुक्रवार के दिन व्रत और पूजन करने से ऐश्र्वर्य की प्राप्ति होती है।
ऐसी मान्यता है कि लगातार 16शुक्रवार तक संतोषी माता का व्रत और पूजन करने से मन्नत किया कार्य पूर्ण होता है। और उसके बाद उद्यापन करते है। उद्यापन में आठ लड़कों को भोजन करा, दक्षिणा दिया जाता हैं।
व्रत और पूजन कर माता की कथा जो सुनता या पढ़ता है उसके मनवांछित फल पूर्ण होते है।
संतोषी माता की कथा इस प्रकार है-------
एक बुढ़ी मां के सात बेटे थे। छः कमाते थे और एक निकम्मा था। बुढ़िया अपने कमाने वाले छः पुत्रों को
रसोई बनाकर प्रेम से खाना खिलाती थी पर निकम्मे बेटे को उनके झूठन देती थी। 
एक दिन निकम्मे बेटे ने अपनी पत्नी से कहा- मेरी मां मुझसे कितना प्रेम करती है। 
इस पर पत्नी ने कहा- हां, तभी तो सबकी बची झूठन आपको खिलाती हैं।
अपनी पत्नी की बातों पर विश्वास न कर उसने स्वयं अपनी आंखों से देखने का सोचा। और एक त्यौहार पर उसने चालाकी से अपने आंखों से देखा, मां उसे सबों का झूठन परोस रही हैं। 
यह देख वह अपनी मां और पत्नी से कह कर परदेश चला गया। 
प्रदेश जाकर एक साहूकार की दूकान में नौकरी कर ली। कुछ महीनों में उसे लेन-देन का हिसाब अच्छे से आ गया। उसकी होशियारी देख साहूकार ने उसे अपना साझीदार बना लिया। 
साहूकार के वहां मेहनत और लगन से काम कर 12वर्षो में वह सेठ बन गया। 
इधर उसकी पत्नी पर मुसिबतों का पहाड़ टूट पड़ा। ससूराल वाले उससे सारी गृहस्थी का काम करवा कर आटे की भूसी की रोटी देते और नारियल के खोपरे में पानी देते। फिर उसे जंगल में लकड़ी लेने भेजते। उसका जीवन दुःख से भर गया था। 
एक दिन जंगल जाते समय रास्ते में कुछ स्त्रियां संतोषी माता की कथा सुन रही थी। उसके पूछने पर उन्होंने व्रत और पूजन की विधि बताई। यह सुन वह जंगल की लकड़ियां बेचकर उन पैसों से गुड़ और चना लें व्रत की तैयारी की। 
आगे चलकर संतोषी माता के मंदिर में गई और माता के चरणों में गिर कर कहने लगी- मैं अज्ञानी हूं, कुछ नियम नहीं जानती, मेरे दुःख दूर करो माता। 
संतोषी माता को उस पर दया आई।
एक शुक्रवार बीतने पर दूसरे शुक्रवार को बारह वर्ष बाद उसके पति का पत्र आया। तीसरे शुक्रवार को पैसा आया। यह देख ससुराल वाले जलने लगे और उसे ताने देने लगे। बेचारी आंखों में आंसू भरकर मंदिर गई माता के पास और रो-रो कर कहने लगी-मां! मुझे पैसे नहीं, सुहाग चाहिए। मैं अपने पति के दर्शन चाहती हूं। तब माता ने कहा तेरा पति आयेगा।
संतोषी माता उसके पति के स्वप्न में आई और बोली- पुत्र! तेरे मां-बाप, भाई तेरी पत्नी को बहुत दुःख दे रहे हैं। तू उसकी सुध ले। 
दूसरे दिन लेन-देन खत्म कर शाम को घर जाने के लिए तरह-तरह के गहने-वस्त्र आदि सामान खरीद घर जाने को चल दिया।
उधर जंगल से लौटते में बहू मंदिर में विश्राम कर रही थी कि माता बोली- बेटी!तेरा पति आ रहा है। अब तू लकड़ियों का तीन गट्ठर बना। एक नदी किनारे रखना, दूसरा मेरे मंदिर में तथा तीसरा गट्ठर उठाकर घर जाना और बीच चौक में डालकर जोर से तीन बार आवाज लगाकर कहना- भूसी की रोटी दो, नारियल के खोपरे में पानी दो...।
उसने वैसा ही किया। उसकी आवाज सुन उसका पति बाहर आया और अपनी मां से पूछा- कौन है यह? मां बोली- तेरी बहू है। तुझे देख, यह इस प्रकार कहती है। 
बेटा बोला- ठीक है मां। मैंने इसे भी देखा और तुझे भी। अब मुझे दूसरे घर में रहना है। 
वह अपनी पत्नी के साथ दूसरे मकान में रहने लगा। अब बहू बड़े सुख भोगने लगी। 
कुछ दिनों के बाद जब शुक्रवार आया तो बहू ने माता के उद्यापन की तैयारी की। वह जेठ के लड़कों को भोजन के लिए कहने गई।
जेठानी ने बच्चों को सिखाया कि वे भोजन ग्रहण करने के बाद खटाई मांगे। 
बच्चों ने वैसा ही किया पर बहू ने नहीं दिये। तब बच्चों ने पैसे मांगे, तो बहू ने अंजाने में उन्हें पैसे दे दिए। उन पैसों से बच्चें इमली लाकर खाने लगे। इससे माता का कोप हुआ। 
राजा के दूत उसके पति को पकड़ ले गए। जेट-जेठानी खोटे वचन सुनाने लगे, लूट-पाट का धन इकट्ठा कर लाया है। सब पता चल जाएगा जब जेल की मार खायेगा। 
ऐसे वचनों को सुन बहू रोती हुई माता के मंदिर जा प्रार्थना करने लगी और कहने लगी- मां!हंसा कर क्यों रूलाती हो? 
संतोषी माता बोली- उद्यापन व्रत भंग कर दिया। 
बहू बोली- मां! भूल हो गई। मैं पुनः उद्यापन करूंगी। अब भूल न होगी।
उसकी बातों से माता प्रसन्न हुई और बोली- जा, तेरा पति तुझे रास्ते में आता मिलेगा। 
ऐसा ही हुआ। वह अपने पति को देख पूछी, तुम कहां गए थे? वह बोला- जो धन कमाकर लाया हूं उसका कर (टेक्स) भरने गया था। दोनों प्रसन्न हो घर आये। 
जब अगला शुक्रवार आया तो बहू अपने पति से बोली-मैं फिर से उद्यापन करूंगी। वह बोला- खूब आनंद से करो। 
बहू ने फिर जेठ के लड़कों को बुलाया।पर वे फिर से खटाई की मांग करने लगे। तब उसने ब्राह्मणों के लड़कों को बुलाकर भोजन करवाया और दक्षिणा के तौर पर एक-एक मीठा फल दिया। इससे माता बहुत प्रसन्न हुईं। 
माता की कृपा से नवें मास में उसके एक सुन्दर पुत्र हुआ। बहू रोज अपने पुत्र को मंदिर ले जाने लगी। 
एक दिन माता ने सोचा, ये मेरे पास रोज आती है। आज मैं इसके घर जाऊंगी। माता ने अपना भयंकर रूप बनाया। गुड़ और चने से सने मुख पर मंक्खियां भिनभिना रही थी। ऐसा रुप धारण कर माता बहू के घर आईं।
दहलीज में पैर रखते ही सांस चिल्लाई, भगाओ....भगाओ। डाकिन चली आ रही है। लड़के भगाने लगे। बहू यह सब रोशनदान से देख रही थी। 
वह प्रसंन्नता से चिल्लाने लगी, आज मेरी माता जी आई है। यह कह बच्चें को दूध पिलाने से हटा दिया और वहां आने लगी। यह देख सांस उसे गाली देने लगी। बच्चे को पटक भाग कर आईं है। इतने में माता के प्रताप से जहां देखो वहां लड़के ही लड़के नज़र आने लगे। 
बहू बोली- सासू मां! मैं जिनका व्रत करती हूं यह वही संतोषी माता है।
अब सब माता जी के चरणों में पड़ कर अपने अपराधों की क्षमा मांगने लगे।
माता प्रसन्न हुई और सबों को क्षमा किया।
इस प्रकार शुक्रवार की, संतोषी माता की व्रत कथा समाप्त होती है......।
जो कोई भी इस व्रत को करता है और इस कथा को सुनता या पढ़ता है, उसकी मनोकामना पूर्ण होती हैं। रिद्धी-सिद्धी और सुख-शांति जी भर पाते हैं......।
       बोलो, संतोषी माता की जय.....।
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