अन्नदाताओं की समस्या, फसलों के अवशेष : पराली---------

भारत कृषि प्रधान देश है। यहां के विभिन्न क्षेत्र और राज्यों में विभिन्न प्रकार की पैदावार होती हैं। कहीं साल में तीन बार भी फ़सल पैदा किया जाता हैं। 
हमारे देश के किसान भाई पके फ़सल को काट,
उसके बाद खेतों की साफ-सफाई करते हैं अगले रौपन के लिए। फसल कटाई के बाद खासकर गेहूं, चावल, ज्वार, बाजरा आदि के जो अवशेष बचते हैं उन्हें पराली, कृषि कचरा या फसलों के अवशेष कहा जाता हैं। 
फसलों के अवशेषों को देश के अलग-अलग हिस्सों में अलग-अलग नाम से जाना जाता हैं। वैसे इन दिनों पराली के नाम से हर कोई परिचित हो गया है। 
पाबंदी के कारण बीते कुछ सालों से पराली की समस्या कई राज्यों के किसान भाइयों को परेशान कर रही हैं। 
 जहां खेतों में इसे जला दिया जाता है। जले अवशेषों को फिर से मिट्टी में जुताई कर खेती की जाती हैं। 
लेकिन दक्षिण-भारत में इसे जलाया नहीं जाता बल्कि वहां के किसान भाई फसलों के अवशेषों को पशुओं के चारे के रूप में इस्तेमाल करते हैं। 
      ध्यान दिया गया कि परोली के जलने से जो धूंआ निकलता हैं वह वायु में मिलकर प्रदूषण फैलता हैं। 
जिससे हवा में ज़हर फैल रहा है और यह लोगों के फेफड़ों के लिए हानिकारक सिद्ध हो रहा है। दूसरा
पराली के जले अवशेषों को पुनः खेतों की मिट्टी में मिलाने से मिट्टी की गुणवत्ता नष्ट हो रही हैं। उसमें उपस्थित पोषण तत्व खत्म हो रहे हैं। इसलिए मिट्टी की उपजाऊ क्षमता नष्ट हो रही हैं। जिससे फसलों पर इसका बुरा प्रभाव पड़ रहा हैं। 
वायु प्रदूषण और मिट्टी की गुणवत्ता को ध्यान में रखते हुए 2015 में फसलों के अवशेषों को जलाने में पाबंदी लगा दी गई।  जिसमें कानून करवाई और जुर्माने का प्रावधान है। जुर्माना खेतों के जमीन के हिसाब से लगाया जाता हैं। 
पराली न जलाना ठीक हैं पर, कानून और जुर्माने की न सोच उसके समाधान का सोचना चाहिए। 
उत्तर- भारत में पशु प्रेमी बहुत हैं। खासकर गौ-रक्षक  संस्थाएं अनेक हैं। अगर ये संस्था वाले फसलों के अवशेषों को किसान भाइयों से खरीदे और चारे के रूप में इस्तेमाल करें तो सैकड़ों गायों को चारा मिलेगा तथा किसानों की अलग से कुछ कमाई होगी। जिससे वायू प्रदूषण और मिट्टी पर प्रभाव पड़ने से बचेगा। या फिर कृषि-विभाग से जुड़कर दूसरा कोई उपाय निकाला जा सकता हैं।
          पराली को खेतों में बिना जलाए रख देने से जैविक खाद बन जाते हैं पर किसान भाइयों का कहना हैं, खाद बनने में काफी समय लग जाता हैं। 
 इससे अगली बुआई में देरी होगी और उनकी आय घट जायेगी। उन्हें काफी नुकसान का सामना करना  पड़ेगा। 
      सरकार और किसानों की सोच अपनी-अपनी जगह ठीक है। लेकिन दूसरे क्षेत्रों का देख-समझ उनके नियमों को अपनाना बुरी बात नहीं हैं। 
      सुविधा के हिसाब से दक्षिण-भारत की तरह उत्तर-भारत में भी पराली का इस्तेमाल किया जा सकता हैं। 
 कुछ वर्ष पहले W.H.o. के रिपोर्ट से पता चला देश की राजधानी दिल्ली, भारत की ही नहीं बल्कि दुनिया की सबसे प्रदूषित नगरी है। 
 प्रदूषण के अनेक कारण हैं उनमें पराली भी है। 
 उत्तर- प्रदेश, हरियाणा, पंजाब आदि राज्यों में फसलों के अवशेष यानी कृषि कचरा जलाया जाता हैं। जिसने इतना प्रदूषण फैलता हैं।
 यह सर्दियों में बहुत ज्यादा खतरनाक रूप ले लेता है। दरअसल, ठंड के दिनों में नमी के कारण हवा के कण पृथ्वी के अधिक ऊपर जा नहीं पाते। कम ऊंचाई पर जाकर ही फैले रहते हैं। उन वायु में पराली के जलने से कार्बन-डाई-ऑक्साइड जैसे विषैले तत्व भी घुलते हैं और वे हमारे आस-पास ही फैले रहते हैं। तथा इसी में हमें सांस लेना पड़ता हैं। 
    दूषित वायु में सांस लेने के कारण फेफड़े खराब होते हैं जो जीवन में बुरा असर डालता हैं। 
चिकित्सा- विभाग ने प्रदूषण से चिंता व्यक्त की है। सरकार को कृषि विभाग के साथ मिलकर तुरंत इसका समाधान निकालना होगा। ताकि आम लोगों के साथ ही साथ हमारे अन्नदाताओं को भी कोई क्षति न पहुंचे। 
जुर्माना या कानूनी कार्रवाई से पहले फसलों के अवशेषों का सही इस्तेमाल कर उनका हल निकालना चाहिए। जल्द से जल्द पराली पर विचार करना हैं। जो कि कागज-कलम पर नहीं बल्कि जमिनी हकीकत में होना चाहिए।
 इस समस्या को गा, गे, गी पर नहीं छोड़ना चाहिए.....।
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