मेडिकल-वेस्ट------

अब से 22साल पहले की बात हैं। साल 1998 का था। सर्व प्रथम भारत ने, पहली बार दक्षिण पूर्व एशियाई देशों का ध्यान "वायोमेडिकल-वेस्ट" की ओर करवाया।

भारत ही एक ऐसा देश था जिसने पहली बार "मेडिकल वेस्ट" (कचरा) के बारे में सोचा और राह दिखाई। इस कचरे से भयंकर खतरा पैदा हो सकता हैं। इस आशंका को जताते हुए उस साल एक कानून बनाया गया था।

विशेषज्ञों के अनुसार एशियाई देशों में प्रथम भारत द्वारा लिया गया कदम पूरे देश के लिए सवाल पैदा करता है। "मेडिकल-वेस्ट' को लेकर पूरा देश उदासीन है। इस बात की जानकारी कोरोना महामारी ने दी। अर्थात कोरोना महामारी काल में इस ओर की लापरवाही तथा उदासीनता सामने आई।

कोरोना संक्रमण युक्त वेस्ट (कचरा) को संग्रह करने और उसे नष्ट करने की प्रक्रिया में अस्पताल के तमाम कचरों पर नजर पड़ी। "वायोमेडिकल वेस्ट" के प्रति उदासीनता का पता चला। इन कचरों को संग्रह कर उन्हें नष्ट न करने की बात सामने आई।
कानून और वास्तविकता में जमीन आसमान का फर्क माना जा रहा हैं।

जब से कानून (1998) बना, तब से आज तक जैसे- तैसे "वायोमेडिकल वेस्ट" को काम चलाऊ साफ किया, नष्ट किया या न किया, पर ऐसे ही चल रहा हैं।
            1998 के बाद इस कानून को 2016में कुछ बदलाव किए गए। इस बदलाव में कहा गया-
अस्पताल, नर्सिंग-होम, किल्निक, प्रयोगशाला, ब्लडबैंक, पशु चिकित्सा केन्द्र आदि इस तरह के समस्त स्तरों से जो कचरा निकलता हैं, वो सभी इस कानून के अंतर्गत आएंगे। अगर इन जगहों के कचरों को ढंग से संग्रह कर उन्हें नष्ट न किया जाए तो कानूनी कारवाई होगी।

पर बात सिर्फ कानून बनने तक ही सीमित रही।
फिर 2018-2019 में इस कानून को और संशोधन किया गया।
विशेषज्ञों के कहे अनुसार, 1998में मेडिकल वेस्ट के ख़तरे को देखते हुए कानून बना। फिर इस कानून का दो बार संशोधन किया गया। लेकिन कचरे की समस्या का सही समाधान नहीं मिला।
मेडिकल कचरे को नष्ट करने की कोई रुपरेखा नहीं बनाई गई। न ही प्रशिक्षण की कोई व्यवस्था हुई। सिर्फ कानून बना और संशोधन पर संशोधन हुआ।
इसलिए पूरे देश में जत्र-तत्र मेडिकल स्तरों के प्रारंग में जमा कचरा पाया जाता हैं।

इसके अलावा "घरेलू मेडिकल वेस्ट" भी निकलता हैं। जिसका परिणाम भी अत्यधिक हैं। इन कचरों की जिम्मेदारी साधारण लोगों पर ही होनी चाहिए।
लेकिन जागरुकता की अत्यंत कमी हैं।

एक तरफ "वायोमेडिकल वेस्ट" तथा दूसरी ओर "घरेलू मेडिकल वेस्ट"......। ठीक से सोचा जाए तो भयंकर खतरा हैं, प्रदूषण फैलने का.....।

सरकारी और निजी, दोनों संस्थाओं के कचरों को खत्म कर प्रदूषण को रोकने की व्यवस्था नहीं के बराबर है। मेडिकल वेस्ट को नष्ट करने के प्रशिक्षण
की भी कमी हैं।

"वेस्ट ट्रीटमेंन्ट फेसिलीटी" कार्यरत नहीं हैं।
         अब पिछले कुछ महीनों से कोरोना संक्रमण वेस्ट भी इस बीच आ पड़ा है। हालांकि यह वेस्ट तुलनात्मक रूप से ज्यादा खतरनाक हैं। जिसे नष्ट करने के चक्कर में पूरे देश का वायोमेडिकल वेस्ट का ढेर नज़र आया।
        
हमने देश का पूरा मेडिकल कचरा, रोज करीब सात-आठ लाख किलो निकलता हैं। और यह दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा हैं। इसमें मानव के कुछ अंग, आर्गेन, खून, सूई, सिरीज़, ब्लेड़, कॉच,  सेनेटरी नेपकिन, सेल, एक्सपायरी डेट की दवाएं, प्राणियों के वेस्ट, प्राणियों की वाडी आदि इस तरह की और भी अनेक "वायोमेडिकल वेस्ट" होते हैं। जो पूरे देश भर के मेडिकल संस्थानों और घरों से निकलते हैं।

इन्हें ठीक ढंग से नष्ट करने हेतु प्रशिक्षण और प्रक्रिया बहुत ही आवश्यक हैं।

विशेषज्ञों द्वारा यह कमी सामने आई हैं, जिस पर ध्यान देना होगा.....। तत्परता दिखाना होगा.....।
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