अभिलाषा vs अंधविश्वास ------

आज भी विश्वास और भरोसे पर दुनिया कायम हैं। 
लेकिन अंधविश्वास, वो ठीक नहीं....।
एक हद तक किसी व्यक्ति- विशेष, अपने-पराये, आस्था, प्रथा आदि पर विश्वास करना ठीक है। और करना भी पड़ता हैं परंतु, अति ठीक नहीं। 
चाह की थैली कभी भरती नहीं.....।
देखा गया हैं कई लोग अपनी अभिलाषा के लिए अंधविश्वास का सहारा लेते हैं या उस चक्कर में फंस जाते हैं, पर अंत तक खाली हाथ रह जाते हैं।
वैज्ञानिक युग होने के बावजूद आज भी भारत के कई हिस्सों में अंधविश्वास को प्राथमिकता दी जाती हैं। इसमें हमारे शिक्षित व अशिक्षित दोनों वर्ग शामिल हैं। 
ताज़े उदाहरण के तौर पर कोरोना महामारी से बचने और उसे दूर करने के लिए हम भारत वासियों ने ऐसे ही कई हथकंडे अपनाए थे। जिसे हमने आस्था का नाम दिया था। पर रिजल्ट बिग जीरो....।
अंधविश्वास के शिकार गांव के ही नहीं शहरों के पढ़ें-लिखे लोग भी हैं। देखा जा रहा है, दिन-प्रतिदिन लोगों का अंधविश्वास पर आस्ता बढ़ता जा रहा हैं। 
कितने लोगों का कहना हैं मजबूरी या बुरे वक्त में इंसान कुछ भी करने को बाध्य होता हैं। 
      जानवरों के काटने पर अंधविश्वासों का सहारा लेते हैं। अपनी कोई चाह पूरी करने के लिए कई बार लोग, इसके चक्कर में अपनों की बलि चढ़ाने में भी नहीं हिचकते। भले ही जान चली जाए या जेल हो जाएं। परिवार बर्वाद हो या जिंदगी। पर बहुत इंसान अंधविश्वास का सहारा ले लेते हैं। दूसरों का देख या सुन, सचेत भी नहीं होते।
      पुराने जमाने में इनकी बहुत मान्यता थी। लेकिन आज भी हम अंधविश्वास को मान्य देते हैं। हम अपने जरुरत के मुताबिक अंधविश्वास में विश्वास करते हैं और कभी-कभी इसे आस्था तथा प्रथा का हवाला देते हैं। फिर ऐसा भी देखा गया है, इस पथ पर चलने को बाध्य भी किया जाता हैं। जिस कारण कई बार बच्चों की मनोदशा पर बुरा प्रभाव पड़ता हैं, महिलाओं को अपनी आबरू खोनी पड़ती हैं और पुरुषों को धन की क्षति होती हैं। 
छत्तीसगढ़ से ऐसा ही, अंधविश्वास का एक वाकया सामने आया है। यहां "मधई-मेला" लगता है। जो दिवाली के बाद के पहले शुक्रवार को आयोजित किया जाता है। यह मेला "देवी अंगारमती" के मंदिर में लगता है।
इस मंदिर से जुड़ी एक आश्चर्य-चकित "प्रथा' सामने आई है।इस प्रथा को यहां के लोग आस्था से जोड़ते है। परन्तु प्रथा जानने के बाद साधारण लोगों को लगेगा, यह अंधविश्वास से जुड़ा है। 
इस साल 2020 में कोरोना महामारी के चलते कुछ लोग सावधानियां और नियमों का पालन करते आ रहे हैं।ऐसी परिस्थिति में मेले का आयोजन, अनुचित है। वैसे पूरे देश भर में आयोजनों की त्रुटी नहीं हैं। फिर भी अंधविश्वास की प्रथा जरा हटके है। 
दरअसल, इस प्रथा के अनुसार जिन महिलाओं को संतान नहीं हैं ऐसी महिलाएं बच्चों की चाह में इस मेले में आतीं हैं। और संतान होने का आशीर्वाद लेती हैं। 
इस साल वहां के करीब 50गांवों की 200 महिलाऐं आईं। अपने गोद भरने का आशीर्वाद लेने। आशिर्वाद लेने के नियम है.... नियमानुसार 200 महिलाऐं  लाईन लगाएं पेट के बल औंधे हो जमीन पर लेट गई। और वहां के दर्जनों पुजारी अपने-अपने हाथों में देवी का झंडा लेकर उन महिलाओं के पीठ पर से चल कर देवी अंगारमती के मंदिर में प्रवेश किये...।अर्थात कालिन बना महिलाओं को ज़मीन पर लेटा दिया गया। और गद्देदार कालिन समझ महिलाओं के पीठ पर पैरों से चल कर दर्जनों पुजारी मंदिर में प्रवेश किये। यह आशिर्वाद देने की प्रथा है। 
शर्म को भी शर्म आती है। कितनी असम्मानिय, अमानवीय और घटिया प्रथा को जीवित रखा है यहां के लोगों ने...।
एक दंपति को संतान न होने की समस्या पति-पत्नी में से किसी एक को हो सकती है। किसी एक में अगर कोई कमी या दिक्कत हो तो ऐसा हो सकता है। सिर्फ पत्नी ही जिम्मेदार नहीं होती।यह विज्ञान कहता है.....चिकित्सा विभाग कहता है....।
      महिला या पुरुष किसी एक की समस्या की वजह से, संतान प्राप्त न होने के कारण है। फिर सिर्फ महिलाओं को ही क्यों इस तरह जमीन पर लेटाने की प्रथा है? ये प्रथा पुरुषों के लिए क्यों मान्य नहीं?
उधर पुजारियों की मानसिकता पर भी गौर किया जाए तो......?
खैर, भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जी के अनुसार, विज्ञान को उन्होंने उन्नति की रीढ़ की हड्डी कहा था। समाज की उन्नति में वैज्ञानिक प्रावृत्ति को मानते थे। अपने लिखे किताब में उन्होंने इन बातों का उल्लेख किया था।
लेकिन आज का हमारा समाज अत्याधुनिक होने के बावजूद उन्नति को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से न देख
अंधविश्वास रुपी आस्था पर बल देता हैं। जो अत्यंत लज्जाजनक और चिंताजनक हैं।
इस तरह की प्रथा महिलाओं के आत्मसन्मान को ठेस पहुंचाती हैं.....।
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