चरित्रहीन-

मां, अपने छोटे बेटे का रिश्ता कुछ एक सालों से ढूंढ रही थी। पर, 30 वर्षीय सुदर्शन वकील बेटे का कोई ढंग का रिश्ता मिल नहीं रहा था। 
उन्हें अपने बेटे के लिए पढ़ी-लिखी पर घरेलू लड़की चाहिए थी। 

बेटे की चिंता उन्हें भीतर ही भीतर खाए जा रही थी। सुबह-शाम वो भगवान से प्रार्थना करती रहती,  किसी भी हाल में अपने छोटे बेटे की शादी करवा दे और उसकी जिंदगी बचा ले। मौका मिलते ही हर किसी से एक घरेलू लड़की की बात करतीं थीं....अगर किसी की नजर में हो तो....। 

मां ने मन में ठान लिया था, छोटे बेटे की शादी करवा कर ही मरेगी।

आखिरकार उन्हें एक रिश्ता मिल ही गया। जैसा चाहा था, वैसा ही। 

लेकिन लड़की गांव की थी। दो बहनें और माता-पिता। लड़की बड़ी बेटी थी। पिता गांव के हाईस्कूल के शिक्षक थे। लड़की सहज, सरल, शिक्षित व सुशील थी। पारिवारिक शिक्षा के चलते वो संस्कारी भी थी। गांव का सभ्य परिवार था। बस रंग-रुप का कद बौना था। पर यौवन अवस्था के आड़े आने से लड़की निखर रही थी।

जवानी या यूं कह लें, यौवनावस्था को ईश्वर ने बड़े फूर्सत से बनाया है। रचना की वेमिशाल सृष्टि को इस अवस्था में झोंक कर रख दिया। तभी तो प्राणी का हर वर्ग, चाहे वह किसी भी रंग-रुप का हो इस अवस्था (यौवन) में आते से आकर्षित, ऊर्जावान और स्फूर्तिवान दिखाई देता हैं।

वह लड़की भी इसी अवस्था में विराजमान थी। अतः सांवली होने के बावजूद आकर्षक थी तथा शिक्षा उसके व्यक्तित्व में चार चांद लगाए था। 

सबों की सहमति से मां ने उससे अपने बेटे की शादी करवा दी। 
ससुराल में पति तथा सांस के अलावा एक विधवा जेठानी और उसका छः बर्षीय बेटा था। 

चार साल पहले अजीब बुखार की बजह से अचानक जेठजी की अकालमृत्यु हो गई थी। वे मल्टीनेशनल कंपनी में कार्यरत थे। मृत्यु उपरान्त जो पैसे मिले, उन्हें बैंक में बड़ी बहू और उनके बेटे के नाम फिक्सट कर दिया गया। छोटा बेटा पूरे घर का खर्चा उठा लेता था। मकान अपना ही था। जो ससूर जी ने बनवाया था।
                 साफ-सुथरा परिवार देख, वगैर ज्यादा छानबीन के शिक्षक महोदय जी ने अपनी बड़ी बेटी की शादी यहां करवा दी।

शादी के बाद जेठानी अपनी देवरानी का बहुत ख्याल रखती थी। घर-गृहस्थी का कामकाज कम ही करवाती थी। अपने बच्चे के साथ ज्यादा समय बिताने को कहती। पढ़ाना, नहलाना, उसके साथ खेलना, उसे कहानी सुनाना, उसके साथ गप्पे लगाने को कहती। 
उसे अधिकतर अपने बच्चे में उलझाए रखती या आराम करने को कहती थी।

लेकिन सासूमां को यह सब पसंद नहीं था। सासू मां छोटी बहू से कहती- अपने पति का ध्यान रखो। घर-गृहस्थी के काम में हाथ बटाओ। घर संभालो...।
तब उल्टे बड़ी बहू उससे कहती- तुमको अभी यह सब सोचने की जरूरत नहीं है। मम्मी की छोड़ो। देवर जी को मैं संभाल लूंगी। दिन पड़े हैं। आगे करती रहना। 

आए दिन इस तरह की बातों से प्रभावित हो छोटी बहू अपनी जेठानी को बहुत पसंद करने लगी थी। उधर सासू मां के टोकने, बोलने से वह अपनी सासूमां से मन ही मन नाराज़ रहती थी। 

सांस अपनी बड़ी बहू के चाल को समझती थी पर विवश थीं। चाह कर भी छोटी बहू को समझा नहीं पाती। न ही खुलकर बात कर पाती। क्योंकि वो जानती थी ऊपर की ओर थूकने से, थूक अपने मुंह पर आकर ही गिरता है। तथा अपने औलाद को बचाने के चक्कर में दूसरे की औलाद को बली का बकरा जो बनाया था। 
अपने छोटे बेटे को बचाने के लिए पढ़ी-लिखी और घरेलू लड़की से शादी करवाई लेकिन शिक्षा और कूटनीति अलग हैं। शायद सासूमां इससे बेखबर थी। इसलिए बड़ी बहू ने खामोशी से सासूमां का पासा ही पलटकर रख दिया। और झूठी हमदर्दी दिखाकर छोटी बहू को अपने जाल में फसा लिया।

घर के बाकी सदस्यों के साथ ही साथ छोटी बहू भी उनके (सासूमां)खिलाफ होने लगी। इन सबों से जुझती हुई एक दिन सासूमां को "ब्रेन-हैमरेज" हो गया और वह खत्म हो गई।

अब जेठानी ने दूसरी चाल चली। तबियत और मन की खराब परिस्थिति को सामने रख, देवरानी से घर-गृहस्थी के सारे काम करवाने लगी, बच्चे को चाची के खिलाफ कर उससे उसे परेशान करवाने लगी तथा खुद देवरजी के इर्द-गिर्द घूमती व आराम फरमाती। पर देवरानी को अपनी जेठानी से कोई शिकायत नहीं थी। कारण जेठानी के कूटनीतिक जाल में जो वो फंस चूकी थी। जिसका उसे जरा भी अंदाजा न था।

इस बीच वह गर्भवती हो गई। काम करते-करते एक दिन वह बहुत थक गई थी। सोचा थोड़ी देर आराम कर लूं, फिर बाकी काम धीरे-धीरे कर लूंगी। यह सोच अपने कमरे में लेटने गई। उसकी नज़र जेठानी के कमरे में पड़ी। अपने पति और जेठानी के अकल्पनीय दृश्य को देख वह सन्न रह गई।

 उसे काटो तो खून न निकले। सभ्य परिवार से ताल्लुक रखने वाली पढ़ी-लिखी लड़की के होश उड़ गए। पर भर में दोनों के प्रति उनकी इज्जत खत्म हो गई। दुःखी होने से ज्यादा वह स्तब्ध थी। उसे अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हो रहा था। 

उसकी उपस्थिति के अहसास ने भाभी-देवर को एक-दूसरे से अलग किया।
बाहर लम्बे बरामदे में रखी कुर्सी पर आकर वह बैठ गई और भाभी-देवर के दृश्य को सही दृष्टिकोण से देखने और समझने की कोशिश करती रही।बार-बार अपने को समझाने की कोशिश करती रही। शायद वो ग़लत है....। इस बीच अचानक उसके ध्यान में सासूमां आई। उनकी कहीं बातों को याद करती रही।

आज वो अपनी सासूमां को समझ पाई जो, उसे कुछ समझना चाहतीं थीं....अपने पति को भी वह समझ पाई, जो पढ़ा-लिखा, एक "चरित्रहीन" व्यक्ति है।

पूरी रात वह सोचती रही और सुबह अपनी मम्मी को फोन मिलाया। सारी बातें बताते हुए अपना निर्णय सुनाया। ....वो एक चरित्रहीन के साथ जीवन गुजारना नहीं चाहती। न ही ऐसे इंसान के बच्चे की मां बनना चाहती है।इन सबों से अलग हो, आगे पढ़ाई करेंगी तथा अपना भविष्य खुद संवारेगी। दुनिया में अच्छे से जीवन गुजारने के अनेक उपाय है। सिर्फ इकलौता शादी ही नहीं है उसने अपना फैसला सुनाया।

मां ने समझाने की कोशिश की तो वो बोली- मां, मुझे दुःख या चिंता नहीं है। मैं आश्चर्य हूं ऐसे लोग शादी क्यों करते हैं...? इन्हें अपनी इज्जत की परवाह क्यों नहीं होती...?

खैर, मैंने आप लोगों की मानी। और शादी की। अब आप लोग मेरी मानेंगे। तथा मेरे निर्णय में मेरा साथ देंगे। सब.... मैं बालिक हूं। अतः फैसला लेने का अधिकार रखती हूं। अपने जीवन में मैं, चरित्रहीन को जगह नहीं दे सकती। मुझे घुट कर जीने को मजबूर न करें.....इतना कह उसने (छोटी बहू) फोन रख दिया।

मां से फोन करने के बाद अपने वकील साहब पति से बोली- आपके पास कई कैंस आये होगें। सोल्भ भी हुए होगें।आज मैं अपना कैंस लेकर आई हूं। मैं अपने पति को आजाद कर खुद भी आजाद होना चाहती हूं। आपको दो साइन करने हैं। एक अस्पताल में और दूसरा मियूचल डिभोस (तलाक़) पेपर पर...... पति ने बहुत समझाने की कोशिश की लेकिन वो नहीं मानी। 
उसका कहना था वह फ्रेश जिंदगी जीना चाहतीं है। चरित्रहीन पति के होने से, न होना अच्छा है।
उसने जो कहा, वही किया। न समय बर्बाद करना चाहती थी और न ही अपनी जिंदगी....।

छोटी बहू का मानना था, चरित्रहीन व्यक्ति का चरित्र सुधार नहीं सकता और चरित्रवान व्यक्ति उसका साथ निभा नहीं सकता।
ऐसे समझोते करना अपने और समाज के लिए क्षति साबित होता हैं।
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