खुशनुमा दर्द---------

किसी के दरवाजा खटखटाने पर मैंने दरवाजा खोला। सामने दो बच्चे स्कूल यूनीफाम में खड़े थे।
बच्ची की उम्र 7-8 और बच्चे की 4-5 साल होगी। मुझे देखते ही बच्ची ने पूछा- आंटी जी मम्मी है...?
अंदर से राधिका ने सुन लिया था। मेरे कुछ कहने से पहले उसने अंदर से आवाज लगाई... हां-हां आ रही हूं। जरा रुक।

 दोनों बच्चे काम करने वाली बाई, राधिका के थे। राधिका पिछे वाली बस्ती में रहती है। आज काम करने में कुछ देरी हो गई इसलिए बच्चे उसे घर पर बुलाने आ गये। वरना रोज तैयार होकर गली के नुक्कड़ में खड़े रहते हैं। समय से राधिका पहुंच जाती है और उन्हें संग ले स्कूल छोड़ने जाती है।

साड़ी के पल्लू से हाथों को पोछती हुई, वह  जल्दी-जल्दी आई और मुझसे बोली- माता जी, पूरा काम हो गया। मैं चलती हूं। बच्चों को स्कूल पहुंचाना हैं। आज कुछ देरी हो गई...... और मुस्कुराती हुई उन्हें ले चली गई।

दरवाजे पर खड़ी मैं उन्हें देख रही थी। दोनों बच्चों को स्कूल यूनीफाम में देख मुझे मेरा बचपन याद आ गया। बचपन में मैं और मेरा भाई भी इसी तरह एक साथ स्कूल जाया करते थे। 

यादें बड़ी विचित्र होती हैं। जो खुशनुमा दर्द दे जाती है। यादों का रिश्ता भूतकाल से जुड़ा होता है। चाहकर भी हाथ नहीं आता। पर वर्तमान और भविष्य को छू जाता हैं। कुछ यादें वेदना दायक होती हैं और कुछ रोमांचक....। परन्तु.......

आज मुझे स्कूल की एक घटना याद आ रही है। 
मैं और मेरा भाई एक ही प्राइमरी स्कूल में पढ़ते थे। मैं तीसरी मैं और भाई पहली में पढ़ता था। 

हमारी काम वाली बाई हमें स्कूल छोड़ने और लाने जाती थी। हम दोनों साथ-साथ आते-जाते थे।

मैं बड़ी थी, इसलिए स्कूल में टिफिन होने पर उसके क्लास में जाती और उसे साथ ले टिफिन करती।
फिर छुट्टी होने पर उसे लेने उसके क्लास तक जाती। उसका हाथ पकड़ स्कूल के बाहर आती। बाहर बाई खड़ी मिलती। हम उसे अपना-अपना बैग पकड़ा उसके साथ घर आते। 

मां ने हमें ऐसा सिखा रखा था। मां ने मुझे यह भी सिखा रखा था, तुम बड़ी हो इसलिए अपने छोटे भाई का ध्यान रखोगी। उसे कोई परेशानी न हो तुम्हें देखना है। मां के कहने पर मैं ऐसा ही करती थी।

एक दिन की बात है। टिफिन टाइम पर सभी बच्चे अपनी-अपनी क्लासों से दौड़ते हुए बाहर निकल रहे थे। मैं भी दौड़ती हुई अपने भाई की क्लास की ओर गई। उसकी क्लास की खिड़की तक जाकर रुक गई। अपने दोनों हाथों से खिड़की के रोड को धिरे से पकड़ कर खड़ी हो गई। 

क्लास के अंदर बैंच पर कान पकड़े मेरा भाई और दो लड़के खड़े थे। सारे बच्चे टिफिन करने निकल गये थे। पर उन तीनों को सजा मिली थी। 

स्कूल मैदान में सारे बच्चे शोर मचा रहे थे, खेल रहे थे, कोई खा रहा था तो कोई गेट के अंदर से खोमचे वाले से खाने की तरह-तरह की चटपटी चीजें ले रहा था। पर मैं, अपने भाई के लिए खिड़की पर ही इंतजार कर रही थी। 

भाई के क्लास में "मिस" बैठी थीं। जो कुर्सी-टेबल पर बैठ कॉपी चैक कर रही थीं। इतने में मेरे भाई ने दरवजे की ओर देखा फिर खिड़की की ओर.....। शायद मुझे ही देख रहा था। जैसे ही उसकी नज़र मुझ पर पड़ी, दवी आवाज में रोना शुरू कर दिया। रोने की आवाज़ नहीं आ रही थी पर रोने लगा। उसे रोता देख मैं भी रोने लग गई। हम दोनों एक-दूसरे को देख रोने लगे। 

मैं क्लास के बाहर खिड़की पर खड़ी हो रो रही थी और मेरा भाई क्लास के अंदर बैंच पर खड़े रो रहा था। मुझसे मेरे भाई की तकलीफ़ सहन नहीं हो रही थी। उसके लिए मेरे साथ-साथ मेरा मन भी रो रहा था। जैसे-जैसे मेरी तकलिफ बढ़ रही थी वैसे-वैसे मेरी मुट्ठी की कस बड़ रही थी।

भाई के लिए रोये जा रही थी पर डर भी था कहीं मिस जी को पता न चले....। अचानक मैंने महसूस किया कि मेरे सिर पर किसी का हाथ है। साथ ही सुनाई पड़ा, यहां खड़ी-खड़ी क्या कर रही हो अंकिता...? टिफिन कर लिया....?
मैं एकाएक मुड़ी और सिर ऊपर कर देखा तो मेरी क्लास टीचर थी। मेरी आंखों में आंसू देख, प्यार से  पूछी- अरे! क्या बात है...? रो क्यों रही हो..?

अब मैं फूफक-फूफक कर और तेज-तेज रोने लगी।
स्नेह भरे शब्दों से मिस जी बोली- आओ मेरे साथ आओ.... इतना कह मेरा हाथ पकड़ा और मुझे मेरे भाई की क्लास में ले गई। 

वहां बैठी मिस जी से बोली- मैं आपके पास आ रही थी। इसे देखा खिड़की के पास खड़ी-खड़ी रो रही थी। दोनों मिस एक-दूसरे को देखने लगे और मैं डरी, सहमी सिर झुकाए खड़ी रही। 

इतने में मेरे भाई की रोने की आवाज़ आई। वो हमें देख जोर-जोर से रोने लगा। उसे देख दोनों बच्चें भी रोने लगे। पूरा दृश्य देख दोनों मिस एक-दूसरे को देख मुस्कुराई। 
प्यार से मेरी क्लास टीचर मुझसे बोली- अच्छा, अपने भाई के लिए रो रही हो....?
फिर उन्होंने उन तीनों से कहा- तीनों इधर आओ.....।
बच्चे अपनी मिस जी की ओर देखने लगे तथा उनकी अनुमति की प्रतिक्षा करने लगे।

पिछले बीस-पच्चीस सालों में विद्यालय का माहौल और वहां के रिश्तों में काफी फर्क आ गया है। वरना उससे पहले स्कूल ही बच्चों का दूसरा घर और टिचर माता-पिता हुआ करते थे।बच्चे (विद्धार्थी) अपने शिक्षकों से डरते थे पर उनकी इज्जत किया करते थे। दोनों के बीच अपनेपन का पुल हुआ करता था। उस पुल को आसानी से पार कर, एक-दूसरे की ओर जाया करते थे। लेकिन अब ऐसी बात खत्म सी हो गई है। कहीं पुल टूट गया तो कहीं दरार पड़ गया है। 

अधिकतर शिक्षक व विद्यार्थियों के बीच वो बात नहीं रही जो पहले थी। परन्तु, यहां बात पहले की हो रही है इसलिए बैंच में कान पकड़े तीनों बच्चे नीचे उतरकर मिस जी के पास तब आए जब उनकी मिस जी ने आने की अनुमति दी। और आने को कहा....।

सजा देने वाली मिस जी ने बताया, ये पहाड़ा याद कर नहीं आए....। इसलिए इन्हें सजा मिली हैं।
          जरा रुक कर उन्होंने पूछा- कल याद करके आओगे....? 
तीनों ने सिर हिलाकर हां कहा....।
तब मिसजी ने चारों से कहा, जाओ और टिफिन कर लो......। हम चारों धिरे-धिरे क्लास के बाहर निकल गये......।

उधर राधिका भी न जाने कब अपने दोनों बच्चों को लेकर आगे स्कूल की ओर निकल गई। पता ही नहीं चला। दरवाजे पर खड़ी मैं अपने बचपन के दिनों में खो गई थी। बचपन से लौटी तो मैं अकेली खड़ी थी। सामने कोई नहीं था। 

एक लम्बी सांस भर मैंने दरवाजा बंद किया और मन-ही-मन मुस्कुराती हुई भीतर चली गई..... यह सोचते हुए कि हम सभी, अपने अंदर बचपन को जतन से संजोए रखते हैं.......।
     बचपन की यादें एक अलग ही अहसास के साथ खुशनुमा दर्द देता है.......।।

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