ख़ामोश प्रतिवाद-------

देव अपने माता-पिता का इकलौता बेटा था। लाड़-प्यार और शानो-शौकत में उसकी परवरिश हुई थी। वह रिष्ट-पुष्ट, चालाक-चतुर और हेंडसम नौजवान (पुरुष) था।

पढ़ाई पूरी कर पापा के साथ बिजनेस में शामिल हुआ। पिता कम पढ़े-लिखे थे लेकिन बेटे के पास डिग्री थी। जो वर्तमान जमाने के दौरान, चल रहे बिजनेस में काम आया और उनका व्यापार पहले से ज्यादा फलता-फूलता गया। 

बेटे के व्यापार संभालने के कुछ साल बाद ही पिता का देहांत हो गया। मां और बेटा घर पर अकेले रहने लगे।

देव अपने बिजनेस तथा यार-दोस्तों में रहता पर मां घर पर अकेली रहती। बोर हो जाती थी। कभी किसी के चली जाती, कभी किसी के.....।
बेटा बड़ा हो गया था इसलिए कभी-कभी किसी के रुक भी जाती। दो-चार दिन रुक कर फिर आ जाती। घर पर काम वाली बाई और खाना बनाने वाली दोनों लगी थी। इसलिए खाने का टेंशन भी नहीं था। सबों से वह अकेलेपन की बात करतीं। 
  
 बेटा देव, मां की समस्या को भली-भांति समझता था इसलिए कुछ कहता भी नहीं था।

एक दिन दूर की मौसी का फोन आया। वो देव की मां से बोली- दवा मिल गई....।
कैसी दवा.....? किसकी दवा.....? उसकी मां ने आश्चर्य हो पूछा।
तेरे अकेलेपन की दवा...
मैं समझी नहीं....
घर पर बहू आ जाएगी तो तेरा अकेलापन दूर होगा। फिर बच्चे होंगे तो घर भरा-भरा सा लगेगा। मेरी नज़र में एक लड़की है। सुशील, पढ़ी-लिखी और होनहार है। 
हंसती हुई देव की मां बोली- अरे हां...
मौसी- कहे, तो बात चलाऊ...।

बात आगे बढ़ाई गई और प्राईवेट कंपनी में काम करने वाली अर्चना मैडम से देव की शादी करवा दी गई।

शादी के बाद भी उसने शौकिए तौर पर नौकरी की। लेकिन चार-पांच साल बीत जाने के बाद भी उन्हें बच्चा नहीं हुआ तो चिंता सताने लगी......।
लोगों के टोकने या पूछने से उसका मन न घर पर लगाता न ही नौकरी में......उदास सी रहती।

दूर की मौसी से फोन पर बात करते हुए देव की मम्मी बोली- जीजी, ये क्या हुआ...? मैं भी अकेली, मेरा घर भी सूना......।
उनको रोकते हुए मौसी बोली- डाक्टर ने कोई कमी नहीं बताई। बस बच्चा बैठ नहीं रहा। मैंने सुना ही नहीं बल्कि देखा भी है.....बहू एक बच्चा गोद ले ले, हो सकता है उसके भाग्य से बहू की गोद भर जाए....। फिर दोनों को लेकर आराम से जीवन चलाए। वैसे भी आजकल सब एक ही बच्चा करते है।

आपस में सोच विचार कर बहू, बेटा और सास, तीनों को मौसी का सुझाव सही लगा। 

एक दिन देव अपनी पत्नी अर्चना के साथ किसी संस्था में बच्चे के लिए रजिस्ट्रेशन करवाने गये। उस संस्था में कानूनी तौर से बच्चा गोद दिया जाता है। रजिस्ट्रेशन के नंबर अनुसार आपको जो बच्चा दिया जाएगा, वही लेना पड़ेगा। यानी बेटा हो या बेटी, जो दिया जाएगा वही गोद लेना है। 

रजिस्ट्रेशन के करीब छः महीने बाद घर पर फोन आया। देव और अर्चना को बुलाया गया। 
सारी कानूनी प्रक्रिया पूरी होने के बाद उन्हें नौ महीनें का एक पुत्र संतान दिया गया। साथ ही कुछ नियमों का ध्यान रखने को कहा गया।

बेटा पाकर दोनों काफी रोमांचित थे।सासू मां भी खुश हुई तथा उन्होंने कहा- बच्चा बड़ा प्यारा है। लगता है किसी अच्छे घर से है। बहू! लग ही नहीं रहा कि यह गोद लिया हुआ है.....। अपना सा लग रहा है...बहुत अच्छा, बहुत अच्छा......।
यह सुन बहू बोली- मां, बच्चे तो प्यारे लगते ही हैं। इससे अपनापन ही नहीं बल्कि बहुत कुछ जुड़ा हैं।
बच्चे के आने से तीनों काफी खुश थे। 

अर्चना ने उसके परवरिश के पीछे नौकरी छोड़ दी। अब अपना पूरा समय गोद लिए बेटे को देने लगी। बड़े जतन से उसे पालने लगी। 

बच्चा, जब धीरे-धीरे चलने लगा। वोएक दिन सासूमां बोली- बचपन में मेरा देव भी ऐसा ही लगता था। 
हां मम्मी जी, शुरू-शुरु में सभी बच्चे एक-जैसे लगते हैं फिर धीरे-धीरे उनमें बदलाव आता हैं।
हां ऐसा होता है..... सासूमां बोली।

करीब दो साल बाद सासूमां का देहांत हो गया। उधर मौसी जी की बात सच साबित हुई। अर्चना को तीसरा महिना लगा था। बेटे से अर्चना का लगाव पहले से ज्यादा हो गया। अपने को संभालते हुए वह बेटे को भी संभालने लगी। पहले सासूमां का साथ था पर अब वह नहीं रही। ऐसे में बड़े-बुजुर्गों का साथ होना अच्छा रहता हैं। लेकिन अब वह काम वाली बाईयों के सहारे ही अपना काम चलाती है।

दशवें महीने में अर्चना को बेटी हुई। दोनों पति-पत्नी काफी खुश थे। एक बेटा और एक बेटी। दोनों बच्चे बहुत सुन्दर थे। जो भी दोनों को देखता खुश हो जाता।

इधर बेटा जैसे-जैसे बड़ा होने लगा सबों की नजर, अब उस पर ही टिक जाती। क्योंकि सब जानते थे, यह बेटा गोद लिया हुआ है। परन्तु इसकी शक्ल देव से मिलती है। 

कैसे...? यह कैसे संभव है...? 
लोगों के मन में तरह-तरह के सवाल।
पर अर्चना इन बातों से अनजान थी। दोनों बच्चों में इतनी उलझी रहती थी कि दिन-रात, सुबह-शाम का उसे पता ही नहीं चल पाता था। वह अपने सुन्दर बच्चों के लिए काफी खुश और गर्वित रहा करती थी....। अपना व गोद लिया में अंतर महसूस नहीं करती....। दोनों बच्चों को ही वह अपना और देव का बच्चा समझाती थी।

परन्तु ज्यादा दिन वो अंजान नहीं रह पाई....।
लोगों और रिश्तेदारों की कानाफूसी ने उसका ध्यान इस ओर आकृष्ट करवाया......। 

अर्चना ने गौर किया सब जो कह रहे हैं वह बात सच हैं। बेटे की शक्ल और कुछ-कुछ हाव-भाव देव से मिलते हैं। जबकि वो गोद लिया हुआ है.....।

उसने सोचना शुरू किया ऐसे कैसे हो सकता है..?
या कहीं वह बात तो नहीं है। कई लोगों से सुना है तथा कहीं शायद पढ़ा भी है। पृथ्वी में एक चेहरे वाले, एक से और भी दो-एक होते हैं। जो दुनिया में कहीं भी मिल सकते हैं। क्या यही वजह है कि उसकी शक्ल देव से मिलती है, या.....?

लोगों के चेहरे के प्रश्नवाचक भाव तथा अपने मन के भाव से वह विचलित थी।

एक दिन दूर की मौसी जी ने फोन मिलाया। कुछ बातें करने के बाद अर्चना ने अपनी परेशानी उनके सामने रखी। मौसी बोली मैंने भी सुना है...।
         उन्होंने देव से बात करने की सलाह देते हुए कहा- इस बारे में तू देव से बात कर। शायद वो ही कुछ बताएं......।

मौसी जी का शक सही निकला। देव ने अर्चना के सारे सवालों का जवाब दिया। 

अर्चना को बड़ा धक्का लगा यह जानकर कि उसके पति का आना-जाना "बार" में था। शादी से पहले भी और बाद में भी....। अपनी सुन्दरता, पैसा और जवानी इन तीनों का उसके पति ने भरपूर फायदा उठाया। 

शादी के बाद वही की किसी अंजान लड़की से परिचय हुआ और कुछ महीनों में ही उसके साथ हमबिस्तर भी हुआ। बेटा उसी का फल है।

पहले मां को भनक लगने नहीं दिया अब पत्नी को भी भनक न लगी....। परन्तु गोद लिये बेटे के जरिए बात (कुकृत) सामने आई। उसकी शक्ल ने देव के सारे राज खोल दिए।

दूर की मौसी जी को अर्चना से फोन पर सारी बातों का पता चला। उन्होंने कहा- मुझे पहले पता रहता तो मैं यह रिश्ता करवाती ही नहीं.... फिर थोड़ी रुक कर बोली, बेटा तू पढ़ी-लिखी है। तुझसे समझदारी की उम्मीद करुंगी। बच्चों के बारे में सोचते हुए  तुझे परिस्थिति से समझौता करना होगा। हौसला रखना होगा। हम समाज में रहते हैं अतः सामाजिक बनकर रहना हैं। देव ने गलत कदम उठाये पर तू कोई ग़लत निर्माण न ले लेना। 

अर्चना को ढांढस दिलाती हुई फिर बोली- बेटा, ऐसा कुछ न करना ताकि दोनों बच्चों की जिंदगी बर्बाद हो जाए। तु मां है.....तु देवकी भी है, तु यशोदा भी है।
कितने परिवारों में कितनी निजी (अंदरुनी) बातें रहती हैं। जिसे दबाकर वे समाजिक तौर-तरिकों को जींदा रखते हैं। अपने को सामाजिक बनाए रखते हैं। तुझे भी बच्चों के साथ सामाजिक बने रहना है। वरना वे हिनता के शिकार हो जाएंगे। उनकी जिंदगी वर्बाद हो जाएगी। तेरी सांस रहती तो वो भी तुझे यही समझातीं। बेटा, मेरी बात समझ रही है न..... 
बीच में उदास हो अर्चना बोली- मौसी जी, मुझे ताज्जुब होता है, शादी के बाद भी...
 उसकी बातों को काटती हुई मौसी बोली- शादी के बाद हो या पहले। यह बात ग़लत है। बिल्कुल ग़लत। शादी से पहले आप कुछ भी कर सकते हैं...? और शादी बाद आप दूध के धुले बन जाओगे..? ऐसा कतई नहीं। इंसान को अपना चरित्र हमेशा सही रखना चाहिए। और तू शादी से पहले की बात कर रही है....? उसके करतुतों के बारे में मुझे जरा भी अंदाजा होता तो....
  खैर, बेटा दोनों बच्चों की सामाजिक जिम्मेदारी तेरे हाथों पे है । तुझे शांत हो, समझदारी से अपने कर्तव्य का पालन करते रहना है। 

मौसी के समझाने पर उसने अपने को संभाला और समझाया। लोगों का मुंह बंद करने के लिए पर्दा डाला। उसनेे "गोद लिये बच्चे" को "सैरोगेट मदर" का रुप दिया। बच्चों का अहित न हो इसलिए समझौता कर समाज में प्रतिष्ठित रही, सबों के साथ मिलकर रही परंतु घर के चार दिवारी में उसने अपने पति से दूरी बना ली तथा उन्हें इज्जत न दे पाई।

बच्चों के लिए समाज को महत्व दिया लेकिन सबके अंजाने में अपने पति को महत्व न दे सकी.....।
अर्चना का यही "खामोश प्रतिवाद" था.......।

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