प्रेरणा---------

आज भी हमारे समाज में कुछ ऐसे व्यक्तित्व है, जिनसे हमें प्रेरणा मिलती रहती हैं। संख्या कम हैं, बावजूद प्रेरणा का असर इतना गहरा होता है कि जीवन भर उसे आंका जा सकता हैं। 

ऐसे ही एक व्यक्तित्व की बात इस लेख के जरिए करना चाहूंगी।
बात एक डॉक्टर साहब की है।

वैसे तो कोरोना काल में चिकित्सा विभाग के डॉक्टरों से शुरू कर समस्त कार्यकर्ताओं का आभार हैं। फिर भी इस बीच कुछ ऐसी घटनाएं सामने आई, जो अमिट छाप छोड़ गई। दिल को छू गई। यहां ऐसा ही जीक्र करना चाहूंगी। जिसे महसूस करना होगा.....।

मैं जब नवीं-दसवीं में पढ़ती थी तब हिंदी विषय के गद्द में "अधिकार" नामक एक कहानी हमारे सिलेवश में था।
मुझे जहां तक याद है, कहानी में लेखिका ने यह दर्शाने की कोशिश की थी कि "शोक" मनाने का अधिकार सबों को नहीं है। तब पढ़ना था सो पढ़ा था, लेकिन अब उसे महसूस करती हूं।

पश्चिम बंगाल राज्य का सबसे बड़ा कोविड-19 "क्रिटिकल केयर यूनिट" के प्रधान- डाक्टर साहब को भी इस अधिकार से बंचित होना पड़ा। उनके सामने उनके डॉक्टर होने का  कर्तव्य था। जिसने उन्हें "मृत्यु शोक" मनाने का अधिकार नहीं दिया.....।

उस दिन रविवार था। डियुटी के दौरान डॉ साहब अपने मरिजों को देखते हुए वॉड में रॉउंड लगा रहे थे। अचानक वे चौंक पड़े....मरिजों के बीच एक बैड में उन्होंने अपने पिता को पाया।
मन में सोचा, पिता जी तो ठीक हो गये थे और आज उन्हें अस्पताल से छूट्टी देने की व्यवस्था हो रही थी। फिर यहां ....? बैड में कैसे...?

सुनने में आया उनकी छुट्टी कैंसल हो गई है। कारण उनके रिपोर्ट चिंताजनक आए है। इसलिए आज (रविवार) नहीं सोमवार को ठीक से चेकअप कर छुट्टी दी जाएगी।

लेकिन सोमवार सुबह से डाक्टर साहब के पिता जी की तबियत और ज्यादा बिगड़ने लगी। उन्हें भेंटिलेशन में रखा गया। परंतु बचाया नहीं जा सका। सोमवार शाम को उनकी मृत्यु हो गई। 

दरअसल, किस्मत का खेल भी अजीब है। कोरोना संक्रमित हो एक पिता, अपने डाक्टर बेटे के ही अस्पताल में उनकी देखरेख में भर्ती हुए। लेकिन.....

अस्पताल में प्रधान डाक्टर (बेटा) व उनकी पूरी टीम की कोशिशों से जहां एक-एक कर अनेक कोरोना मरिजों को मौत के गाल से निकाल कर, उनके परिवार-परिजनों से मिलाने का सकुशल कार्य चल रहा हो, वही एक डॉक्टर बेटा (प्रधान) अपने कोरोना मरिज पिता को बचा न पाए.... बहुत ही अफसोस व विडंबना की बात है।
यह बड़े ही दुखी की बात है। 

लेकिन "मृत्यु शोक" से बिना मुर्झाए, बिना अफसोस किऐ एक बेटा अपने कर्तव्य के प्रति अडिग रहे। उनके सामने अनेक कोरोना मरिज हैं, जो मौत से लड़ रहे हैं। अतः डाक्टर होने के नाते उन्हें शोक मनाने का हक नहीं बनता....।

जिस शाम कोविड-19 से पिता की मृत्यु हुई उसी दिन उनकी नाईट ड्यूटी थी। 

एक भी बैड खाली नहीं थे। सारे बैड मरिजों से भरे थे। किसी मरिज को ऑक्सीजन चल रहा था, किसी को वाईपाश, तो कोई वेंटिलेशन में..... चारों ओर सिरीयस कोविड मरिजों से बैड भरा था। ऐसे में डाक्टर बेटे ने पिता के शव को शवग्रह में रखा और पी पी ई (P.P.E.) शुट पहन सीधे मरिजों के बीच पहुंच गए।

अपने पिता की मृत्यु का शोक तथा उनके अंतिम संस्कार से ऊपर उनका कर्तव्य व जिम्मेदारी रही....।

कर्तव्य बोध, मानव के मानवता को दर्शाता है.....। तभी तो वह मानव कहलाने योग्य है....। 

अस्पताल के अन्य डाक्टरों ने जब उनसे इस बारे में बात की तब वे बहुत ही शांत स्वर में बोले- सारे बैड फुल हैं। इनमें कितने मरिए ऐसे हैं जो जिंदगी और मौत से लड़ रहे हैं। उन्हें छोड़ मैं कैसे चला जाऊं?
थोड़ा रुक कर वे फिर बोले, मैंने अपनी मां से भी बात की है। उन्होने कहा- पहले डाक्टर होने का अपना फर्ज निभाओ....। मरिजों के प्रति अपना कर्तव्य पालन करो....।

डाक्टर बेटे की कर्तव्य निष्ठा की चर्चा अस्पताल के अन्य डाक्टरों तथा कार्यकताओं के जुवान पर थी। यहां तक कि कई मरिजों और उनके परिवार वालों के बिच भी इस घटना का जिक्र था। 

सूत्रों के अनुसार पता चला है कि- डाक्टर साहब के पिता, हाल ही में प्रेशमेकर की समस्या को लेकर एक प्राईवेट अस्पताल में भर्ती हुए थे। वहां वे कोरोना पोजेटीव हो गए। उन्हें घर पर आइसोलेशन में रखा गया। ऐसे में मां भी संक्रमित हो गई। कुछ दिनों के पश्चात मां तो ठीक हो गई पर पिता, दूसरी शारीरिक परेशानी के चलते ठीक नहीं हुए। तब उन्हें बेटे के कोविड अस्पताल में भर्ती करवाया गया।

जहां डाक्टर बेटा और उनकी टीम ने काफी कोशिश कर उन्हें स्वस्थ किया। छुट्टी देने की व्यवस्था भी हो गई। पर ऐसा न हो पाया और उनकी मौत हो गई।

डाक्टर बेटे की यह घटना, हमें अपनी-अपनी जगह रह कर कर्तव्य पालन करने की प्रेरणा देता हैं... जहां तक हो सके
फ़र्ज़ से हिचकिचाना या मुंह मोड़ना नहीं चाहिए.....।

इस घटना के संदर्भ में एक बात और कहना चाहूंगी- कई बार ऐसा देखा गया है कि मरिज के मौत का इल्ज़ाम उनके परिवार वाले डॉक्टर पर डाल देते हैं। तथा उनसे बहुत ही अभद्र व्यवहार करते हैं। जो कि सरासर ग़लत है।

हमें सोचना होगा जब एक डॉक्टर बेटा, लाख कोशिशों के बाद भी अपने ही पिता को बचा न सके तो ऐसे में किसी डॉक्टर पर उंगली उठाना सही नहीं ..... अभद्रता से पेश आना सही नहीं....।

हां, यह बात और है, हर उदाहरण हर जगह सही नहीं होता...... लेकिन सच्चा और अच्छा डॉक्टर, भगवान का दूसरा रूप होता हैं.......। 

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