जगन्नाथ धाम--------

हिन्दू धर्मावलंबियों के मतानुसार "चार धाम" हैं। धाम  अर्थात भगवान का गृह....। जो तीर्थ स्थल के रूप में माने जाते हैं।
 हिन्दू धर्म को मानने वाले समुदाय के लोग, इन चार धामों को बहुत महत्व देते हैं तथा पवित्र मानते हैं।

पुण्य करने और पुण्य कमाने के अनेक उपाय व साधन हैं परन्तु चार धाम की यात्रा करना अत्यन्त पुण्य का काम माना गया हैं।

बद्रीनाथ, द्वारिका, जगन्नाथ पुरी और रामेश्वरम ये चार पवित्र धाम हैं।

सृष्टि के पालनकर्ता "श्री विष्णु भगवान" है। वैदिक काल के मतानुसार ऐसा माना जाता है कि भगवान श्री विष्णु रामेश्वरम में "स्नान" करते थे, बद्रीनाथ में "ध्यान" करते थे, जगन्नाथ पुरी में "भोजन" ग्रहण करते थे और द्वारिका में "विश्राम" किया करते थे। इसलिए इन चार स्थलों को धाम कहा जाता हैं। यानी श्री भगवान का गृह.....।

इस लेख के जरिए जगन्नाथ धाम की बात करेंगे। कारण
सृष्टि के जीवों की पहली प्रथमिकता आहार (भोजन) है। और खाली पेट किसी कार्य में मन नहीं लगता, न ही किया जा सकता हैं। इसलिए भगवान के भोजन गृह के बारे में जानने की कोशिश करते है।
 
बताते चलें कि ज्येष्ठ मास के पूर्णिमा के दिन इनका (भगवान जगन्नाथ जी )जन्म दिवस माना जाता है। जो हाल ही में था। 
अब जान लेते है "भगवान जगन्नाथ जी" के धाम की स्थापना के बारे में..... उसकी जानकारी भी ले लेते हैं....।

जगन्नाथ पुरी को अलग-अलग नामों से जाना जाता हैं-नीलाचल, नीलगिरी, श्रीक्षेत्र, पुरुषोत्तम क्षेत्र आदि और भी नाम हैं। 

भारत के "उड़ीसा राज्य' में "बंगाल की खाड़ी' के किनारे यह धाम अवस्थित है। जगन्नाथ पुरी धाम के कारण यह राज्य काफी मशहूर है।

जगन्नाथ मंदिर को घेरे कई प्रथाऐं प्रचलित हैं। प्रचलित कहानियों में एक यह भी है----

प्रथानुसार एक समय की बात है। "सूर्यवंशिय राजा इन्द्रदूस्न्न" को स्वप्न आया कि समुद्र तट पर विशेष  प्रकार के एक काठ (लकड़ी) का काण्ड (टूकडा) तैरता हुआ आयेगा। उससे देव मूर्ति बनवाकर उन्हें उसकी स्थापना करनी होगी।

स्वप्न के अनुसार राजा इन्द्रदूस्न्न को समुद्र तट पर वैसा ही काठ का एक टुकड़ा मिला। अब वे सोच में पड़ गये कि किस कारीगर से देवमूर्ति बनवाया जा.......? 

राजा इसी सोच में थे कि एक दिन उनके पास एक वृद्ध ब्राह्मण उपस्थित हुए। उन्होंने राजा के समक्ष देवमूर्ति बनाने का प्रस्ताव रखा। 

वृद्ध ब्राह्मण के प्रस्ताव को राजा ने स्वीकारा। इस पर ब्राह्मण बोले- मैं देवमूर्ति बनाऊंगा। परंतु मेरी एक शर्त है.... मुझे कुछ दिन का समय देना होगा और उस दौरान कोई भी आकर मुझे परेशान नहीं करेगा.... मैं अकेले ही देव मूर्ति बनाउंगा.....। 
राजा इन्द्रदूस्न्न, वृद्ध ब्राह्मण की शर्त मान गए। 

वृद्ध ब्राह्मण बंद गृह में उस लकड़ी (काठ) के खंड (काण्ड) से देव मूर्ति बनाने लगे। गृह के भीतर से मूर्ति बनाने की आवाज आती रही। 

आवाज सुन राजा निश्चित हुए कि वृद्ध ब्राह्मण देवमूर्ति बना रहे है।
 लेकिन उन्हें आवाज से संतुष्टी नहीं होती थी।
 
उन्हें कौतूहल होता था कि मूर्ति कितनी बनी.....?
 काम कितना आगे बढ़ा....? 
 मूर्ति कैसी बन रही है....?
राजा गृह (कमरे) के अंदर जाकर देखना चाहते थे। परन्तु वृद्ध ब्राह्मण के शर्तानुसार वे अपना कौतूहल मीटा नहीं पाते थे। उन्हें मूर्ति देखने की प्रबल इच्छा होती थी। पर वे मजबूर थे..।

राजा इन्द्रदूस्न्न कुछ दिन संयम में रहे। उन्होंने अपने को संभाले रखा। 
         परंतु एक दिन अत्यधिक कौतूहल ने उनके संयम का बांध तोड़ दिया। और वे  उस गृह के दरवाजे के सामने जाकर खड़े हो गए। जैसे ही वे खड़े हुए अंदर से मूर्ति बनाने की आवाज बंद हो गई। आवाज बंद होने पर राजा दरवाजा खोल अंदर प्रवेश हुए। वे चकित हो गए। गृह के अंदर वह वृद्ध ब्राह्मण (कारीगर) नहीं थे। मूर्ति आधी-अधूरी बनी थी।

गृह में तीन देवमूर्तियां बनीं थीं। लेकिन उनके हाथ-पांव अभी बने नहीं थे। हाथ-पैर बनाने बाकी थे। अंदर का दृश्य देख राजा समझ गये, वो वृद्ध ब्राह्मण और कोई नहीं "देवशिल्पी विश्वकर्मा जी" ही स्वयं थे।

शर्त को न मान, कार्य में बाधा पहुंचाने के लिए राजा मन ही मन अनुताप करने लगे। उन्हें अपनी गलती पर ग्लानि होने लगी। ठीक उसी समय राजा के सामने "देवर्षी नारद जी" उपस्थित हुए। 

राजा को दुःखी देख, वे उन्हें ढांढस बंधाते हुए बोले- परमेश्वर की असमाप्त मूर्ति ही जग के लोगों के लिए पुज्य होगी। लोग असमाप्त मूर्ति की ही पूजा करेंगे। 

देवर्षि नारद मुनि जी की बात सुनकर राजा की ग्लानि कुछ कम हुई। तब उन्होंने मंदिर निर्माण करवाकर उन तीन असमाप्य देवमूर्तियों की वहां प्रतिष्ठा की....।

ये तन मूर्ति हैं_ श्रीविष्णु भगवान यानी जगन्नाथ, बलराम और सुभद्रा हैं। जो तीन भाई-बहन हैं .....।

इस तरह से जगन्नाथ पुरी धाम का निर्माण हुआ। जिसे सूर्य वंश के राजा ने निर्माण करवाया था।
        लेकिन, इस मंदिर के बारे में लोगों के और भी अलग-अलग विचार और मत है।

खैर, यहां रथयात्रा की बहुत मान्यता है......। यह यात्रा इसी माह (जुलाई) होती है। इस यात्रा में हजारों की संख्या में लोग एकत्रित होते हैं तथा भाई-बहनों के रथ की रस्सी को खिंच कर या हाथ लगाकर पुण्य लाभ उठाते हैं......।
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