ब्रेन-डेथ..........

अचानक फोन की घंटी बजी....... सब कांप उठे..... अस्पताल से जो फोन आया था। 
दरअसल, बेटी के "हार्ट ट्रांसप्लांट" की व्यवस्था हो गई थी।

दुर्घटना के बाद एक युवक को इलाज के दौरान डाक्टरों ने "ब्रेन-डेथ" घोषित कर दिया। 
मां और बहन चाहते थे, उनका भाई व बेटा दूसरे के माध्यम से दुनिया में जिंदा रहे। तथा युग के साथ अपनी मानसिकता पर भी असर पड़ा था अतः उन्होंने "अंग डोनेट" करने का निर्णय लिया। हालांकि इसमें डाक्टरों की अहम भूमिका थी।

जवान बेटा दूसरे शहर में नौकरी के लिए चला गया था। बात सिर्फ नौकरी ही नहीं थी बल्कि उसके हृदय की उपेक्षा भी की गई थी।

मनुष्य बचपन से अपने परिवार, रिश्तेदार, परिचित, बंधु-बांधवों के बीच रहता हैं और रहना चाहता भी है। परंतु जवान होने पर खास व्यक्ति का सानिध्य चाहता है। यह चाह प्राक्रतिक रुप से स्वाभाविक है। 

किसी विशेष का साथ चाहना, उसके प्रति हृदय में मोह पैदा होता है। उससे अपना सुख-दुख बांटने को मन करता है। अधिकांश समय उनके साथ बिताना चाहता है। उसकी दुनिया उस खास व्यक्ति को घेरे रहती है।

ऐसे ही परिस्थितियों का शिकार, वह युवक भी था।
      अलग-अलग धर्म व जाति को मानने वाले युवक-युवती का एक जोड़ा था। उम्र के मोड़ पर दोनों को एक-दूसरे से मिलाया था। उनकी चाहत गहरी थी पर चाहत की उम्र बहुत कम थी।

मजबूरन, अनेक उतार-चढ़ाव के दौरान दोनों को अलग होना पड़ा था। जबकि वे चाहते थे इस जीवन में एक साथ रहना....।

शिक्षा मनुष्य में बोध का उदय करता है। दोनों पढ़े-लिखे नौजवान थें। अतः परिवार व समाज के प्रति अपने कर्तव्य को भली-भांति जानते थे। इसलिए वे चुपचाप अलग हो गए। ईश्वर के अलावा किसी से शिकायत नहीं थी.....।

इस बात को 5-7 साल बीत गए। अपने शहर में लड़की गुमसुम रहने लगी। उधर दूसरे शहर में जाकर युवक नौकरी करने लगा। साथ ही हमेशा अपनी चाह को याद कर घुटता रहता था। हमेशा उसी की चिंता में खोया रहता था।

किसी ने, किसी से कोई शिकायत नहीं की लेकिन भीतर ही भीतर दोनों खोखले होते चले गए। वे जानते थे- परिवार तथा समाज का उनके चाह के प्रति कोई दायित्व नहीं हैं।

युवती इन दिनों अक्सर बीमार रहने लगी। एक दिन डाक्टर ने उसे "हार्ट-पेसेंट" बताया।
बचपन से इस पर किसी ने ध्यान नहीं दिया था और न ही स्वयं युवती ने....। खैर....

एक समय आया जब डॉक्टर ने "हार्ट ट्रांसप्लांट" की बात कही। और वे सब इसी की कोशिश में थे। अपनी जवान बेटी के लिए  चिंतित तथा दुःखी रहते थे।

डाक्टर साहब का कहना था- समाज के लोगों की सोच बदल रही हैं। उन्हें सचेत किया जा रहा है। अतः हौसला रखे।

और एक दिन फोन की घंटी बजी.......। क्योंकि हार्ट की व्यवस्था हो गई थी।

दो शहर के दो अस्पतालों ने संपर्क किया। दुर्घटना में "ब्रेन-डेथ" होने वाले युवक का "दिल" लाया गया। डाक्टरों की टीम ने युवती के हार्ट ट्रांसप्लांट का आपरेशन किया।  आपरेशन सफल रहा.....।
धीरे-धीरे वह स्वस्थ होने लगी।

कृतिज्ञता का बोध हर एक इंसान में होना चाहिए। अतः डाक्टर से बात कर युवती के परिजनों ने डोनर के परिवार वालों से मिलना चाहा। उसी दिन युवक की मां व बहन भी अपने बेटे के हृदय स्थापित मरिज से मिलना चाहा। कारण उन्हें अमिट दुःख के बीच पता चला था वो मरिज अब स्वास्थ्य है।

डाक्टरों ने दोनों परिवारों का परिचय करवाया.....
दोनों परिवार एक-दूसरे से मिलकर अपनी -अपनी जगह बुत बनकर खड़े हो गए। युवती के परिवार वालों की जुबान से कृत्यज्ञता का एक शब्द नहीं निकल पाया। दूसरी ओर मां-बहन के आंसू कह रहे हो मानो- जिसे स्वीकार नहीं किया, उसके दिल को स्वीकार कर लिया...? कितनी अजीब बात है.... ऊपर वाले क्या-क्या खेल खेलता है.... ।

इंसान अपनी सहुलियत से कुछ स्वीकारता है और अपने ही सहुलियत से बहुत कुछ अस्वीकारता भी है। तब कोई तर्क नहीं चलता....।

दरसल, "जाति-धर्म" इंसान ने खुद बनाएं है और "हृदय" ईश्वर ने.....। यही फर्क कभी- कभी हम समझ नहीं पाते...।

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