दोस्तों, जैसा कि हम जानते सीखने की कोई उम्र नहीं होती। इंसान ताउम्र कुछ न कुछ सीख सकता हैं। दुनिया में सीखने के लिए एक उम्र भी कम पड़ जाती है।
कुछ इंसान ऐसे होते हैं जिनमें कुछ सीखने की ललक रहती हैं। माना गया है ऐसे व्यक्ति सफलताओं की ओर बढ़ते जाते हैं।
कहते है गलतियों से भी सीखा जा सकता हैं।
दुनिया में सीखने का कोई अन्त नहीं है। सिर्फ पढ़ाई ही नहीं, इसके अलावा बहुत कुछ सीखा जा सकता हैं। इंसान के कई गुणों में सीखने की इच्छा भी एक विशेष गुण है। यह गुण उसे ज्ञानी, समझदार व गुणी बनाता हैं।
अतः सीखना व सीखने की चाह रखना अच्छी बात है। लेकिन यहां दो बातें काफी महत्वपूर्ण है - एक तो सुख के आड़े अहंकार नहीं आना चाहिए। और दूसरी बात, अपने को जानने तथा पहचानने की कला भी जानना जरूरी होता है। जो अपने को पहचानेगा वहीं सीख की कद्र भी करेगा। वरना सब बेकार। यह कहना महात्मा गौतमबुद्ध का है।
महात्मा गौतमबुद्ध का मानना है मनुष्य को बहुत कुछ सीखने की चाह के साथ ही अपने को भी जान लेना चाहिए। वहीं सबसे बड़ी कला (सीख) होती है।
बात बुद्ध के समय काल की है। एक बालक था जो कुछ न कुछ सीखने में उत्सुक रहता था। और रुचि के साथ सीखता भी था। उसने अपने इस बाल्य काल में कई कलाएं सीख रखी थी। लेकिन सीखने की चाह कम नहीं होती बल्कि बढ़ती रहती थी।
वह बसुरी, तीर, मूर्ति आदि अनेक चीजें अलग-अलग लोगों से सीखता रहता था।
इस तरह सिखते-सिखते वह युवा हो गया। लेकिन उसके सीखने की प्रवल इच्छा समाप्त नहीं हुई। इस बीच वो काफी प्रतिभावान बन गया था।
अब वह शास्त्रों का पाठ भी सीखने जगह-जगह जाया करता और सीखता। लोगों से नई-नई कलाएं, तरह-तरह की कलाकारी, पाठ आदि सीखता। यही सब सिखाते-सिखते उसके मन में अहंग पैदा हो गया। वो अहंकारी बन गया।
वह अपने परिवार के सदस्यों, मित्रों, बंधु-बांधवों के बीच हमेशा कहने लगाता- "दुनिया में मेरी तरह समझदार, ज्ञानी कलाकार कहीं नहीं मिलेगा। मैं दुनिया का महान कलाकार हूं।"
वो अहंकार को साथ लिए जीने लगा ......।
इसी बीच उसके नगर में एक बार महात्मा गौतमबुद्ध आए। वहां आकर उन्हें लोगों से पता चला, यहां एक युवा है जिसे बचपन से सीखने की ललक है। उसने बचपन से अब तक बहुत कुछ सीख भी लिया हैं। कलाकारी, शास्त्रों का ज्ञान बहुत कुछ सीखा हैं। परंतु अहंकार ने उसके मन में जन्म ले लिया है। वह दुनिया में अपने आप को सबसे बड़ा और महान कलाकार समझता है।
सारी बातें सुनकर महात्मा बुद्ध ने मन ही मन निश्चय किया कि उसने जो भी ज्ञान प्राप्त किया है, कला सीखी है, सब ठीक है लेकिन उसके अहंकार को खत्म कर उसे सबसे बड़ी कला (सीख) सिखाने की जरूरत है। और उसे यह सबसे बड़ी कला मैं सिखाऊंगा।
ऐसा सोच एक दिन बुद्ध, गरीब ब्राह्मण व्यक्ति का रुप धारण कर हाथ में एक कटोरा लिए उसके पास पहुंचे।
बुद्ध को देख उस समझदार युवा ने उनसे पूछा- आप कौन है?
बुद्ध बोले- मैं अपने आप को जानने वाला आदमी हूं।
युवा बोला -अपने आप को जानना भी कोई सीख है भला?
बुद्ध बोले- क्या तुम्हें यह कला आती है?
युवा बोला- अपने आप को हर कोई जानता है।
भला यह भी कोई सीख है? कोई
कला है?
बुद्ध बोले- तुम जो भी कलाऐं जानते हो वो कोई भी बना सकता है या सीख लेता है। पर जीवन में महान कलाकार वहीं होता है, जो अपने को पहचानें। अपने मन और शरीर को नियंत्रित करना सीखें। यह सबसे बड़ी कला है। क्या तुम इस बड़ी कला को जानते हो?
युवक बहुत समझदार व ज्ञानी था। अतः बुद्ध की बातों का अर्थ (अहंकार) वह समझ गया। युवक अपने अहंकार को त्याग कर बुद्ध का शिष्य बन गया।
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