वामन देवता -----

             दोस्तों, आज के लेख में हम आपको वामन देवता की संक्षिप्त जानकारी देना चाहेंगे। 
         वैसे तो इनके बारे में हर कोई जानता हैं। पर कुछ लोग ऐसे भी हैं जो शायद नहीं जानते। उन्हीं लोगों को ध्यान में रखते हुए आज का यह लेख है।
          हिन्दू धर्म ग्रंथों के अनुसार कहा जाता है, भगवान विष्णु कई रुपों में अवतरित हुए हैं। "वामन देवता" उन्हीं रुपों में से एक है। ये भगवान विष्णु के पांचवें अवतार माने जाते हैं। पांचवें अवतार में भगवान एक "बौने ब्राह्मण" के रूप में अवतरित हुए थे। यही कारण है कि इन्हें "वामन" कहा जाता है।
            वामन देवता ब्रह्मचारी थे। ये बौने अर्थात नाटे रुप में दिखाई देते थे लेकिन इनका असली स्वरूप "विराट" था। जन्म के बाद ही इन्होंने ब्रह्मचारी का रुप धारण कर लिया था। ये अग्नि समान तेजस्वी थे।
हमारे मन में साधारण तौर पर यह सवाल आ सकता है कि आखिर भगवान विष्णु जी को एक बौने ब्राह्मण के रुप में अवतरित होना क्यों पड़ा? तो चलिए जान लेते हैं......
हिन्दू धर्म ग्रंथों के अनुसार, हम जानते हैं देवी-देवता और दानवों के बीच हमेशा से ही संघर्ष होता आया है। जब-जब दानवों का अत्याचार बढ़ा है तब-तब भगवान को देवी-देवताओं के रक्षा हेतु विभिन्न रूपों में अवतरित होना पड़ा है। इसलिए ही भगवान विष्णु पांचवें अवतार, "वामन" के रूप में अवतरित हुए थे।
           वामन देवता के रूप में अवतरित होकर भगवान विष्णु जी ने कैसे देवी -देवताओं की रक्षा की उसी विषय में आगे जान लेते है....।
       पौराणिक कथा अनुसार एक समय की बात है "दैत्यराज बलि" ने अपने शक्ति का उपयोग कर "इन्द्र देवता" को हराकर "स्वर्ग" जीत, उस पर कब्जा कर लिया था। इस पर इन्द्र देवता के साथ अन्य देवता विचलित हो उठे। वे दुखी हो गये।
यह देख देव माता अदिती अत्यंत दुखी हो भगवान विष्णु जी की आराधना करने लगी। उधर इन्द्र और अन्य देवतागण भी भगवान विष्णु के समक्ष पहुंचे और अपनी परेशानी उनके सामने रखी। भगवान विष्णु जी ने उन्हें रक्षा करने का आश्वासन देते हुए वापस भेज दिया।
उधर देवमाता अदिति के आराधना से प्रसन्न और संतुष्ट हो भगवान विष्णु ने उन्हें वरदान दिया। वरदान में उन्होंने माता अदिती को वचन दिया कि वे उनके गर्भ से जन्म लेकर उनके पुत्र इन्द्र की अवश्य रक्षा करेंगे।
और एक समय आया जब भगवान विष्णु, देवमाता अदिति के यहां वामन पुत्र के रुप में जन्म ग्रहण किये। जन्म के बाद उन्होंने वामन ब्रह्मचारी का रुप धारण किया। इसके बाद उनके माता-पिता ने उनका उपनयन करवाया। उपनयन,"जनेऊ" धारण करवाने की प्रथा को कहते है। 
जनैऊ धारण करने के तत् पश्चात वामन देवता ने अपने माता-पिता से आज्ञा ली और इन्द्र को बचाने निकल पड़े।
         वामन देवता (ब्राह्मण) घुमाते हुए दैत्यराज बलि के पास पहुंचे।
दैत्यराज बलि उस समय अपने दैत्यगुरु के साथ मिलकर एक यज्ञ का आयोजन कर रहे थे। इस यज्ञ के करने से दानवों की शक्ति और बढ़ेगी तथा उन्हें आगे कोई हरा नहीं पाएगा। यज्ञ के शुरू होने से पहले ही वामन देवता वहां पहुंच गए।
"वानव ब्राह्मण को देख, दैत्यराज बलि खुश हुआ और उन्हें आदर स्वरुप आसन पर बैठाया तथा नियमानुसार अति शालीनता से ब्राह्मण को दक्षिणा मांगने का अनुरोध किया....वह बोला- हे ब्राह्मण देवता,  मैं आपको क्या "दक्षिणा" दें सकता हूं। नि:संकोच हो आप दक्षिणा मांगे। 
लेकिन वामन देवता चुप रहे।
ब्राह्मणों को सम्मान करने वाले बलि ने उन्हें बार-बार दक्षिणा मांगने का अनुरोध किया। इस पर वामन देवता बोले -अगर तुम मुझे दक्षिणा में कुछ देना ही चाहते हों तो, मुझे मेरे तीन पग की भूमि दो।
दैत्यराज बलि ने कहा - हे वामन देवता, सिर्फ तीन पग जमीन? नहीं .... नहीं .....आप और कुछ मांगे। मैं विराट संपत्ति का मालिक हूं। कृपया आप और कुछ मांगे .....।
पर वामन देवता अपनी मांग पर अड़े रहे।
तब मजबूर हो दैत्यराज बलि ने तीन पग जमीन देने का संकल्प लिया। जैसे ही संकल्प लिया वामन देवता अपना बौना रुप त्याग "विराट" रुप में परिवर्तित होने लगे। वे इतने विराट हो गये कि भगवान विष्णु इससे पहले कभी किसी ऐसे अवतार रुप में अवतरित नहीं हुए थे। 
अब वामन देवता ने अपने विराट स्वरूप का एक पग स्वर्ग में रखा, तो वो उसका हुआ। दूसरा पग पृथ्वी पर रखा, वो भी उनका हुआ। अब दक्षिणा में पाए तीसरे पग को वे कहां रखे? अब और जमीन नहीं बची। तब दैत्यराज बलि ने कहा - हे ब्राह्मण देव संपत्ति का मालिक संपत्ति से बड़ा होता है अतः अब आप अपना तीसरा पग मेरे सिर पर रखे। इतना कह उसने अपना मस्तिष्क उनके आगे झूकाया दिया। 
वामन देवता ने भी अपना तीसरा पग उसके सिर पर रख दिया। और उसे पाताल में जाकर रहने की आज्ञा दी।
पृथ्वी के नीचे पाताल में रहने की आज्ञा पाकर दैत्यराज बलि खुश हुआ।
बलि के संकल्प को पूरा करने पर भगवान विष्णु उससे अत्यंत खुश हुए और उससे वरदान मांगने को कहा .....
इस पर दैत्यराज बलि ने हाथ जोड़कर कहा-
  हे प्रभु! आप सदैव मेरे समक्ष रहे।
वैसा ही हुआ। भगवान सदैव द्वारपाल के रूप में बली के साथ रहने लगे।
दोस्तों,वामन देवता कथा का सीधा व सरल अर्थ है- दक्षिणा या दान देना सदैव फलता है। इसलिए मनुष्य को चाहिए उसे अपने सहुलियत के अनुसार दान-दक्षिणा देते रहना चाहिए।
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