एक खूबसूरत परिवार....

🙏 दोस्तों,

                      आज के लेख में हम एक खूबसूरत कश्मीरी परिवार के बारे में जानेंगे। जैसा सुन्दर कश्मीर वैसा सुन्दर वहां का यह परिवार...सुन्दर, सभ्य, ब्राह्मण, शिक्षित व संभ्रांत परिवार को जानेंगे।

     आमतौर पर आपको या हमें अपने करीब-करीब तीसरी या चौथी पीढ़ी तक की जानकारी मिल पाती हैं। पिता, दादा, पढदादा या उनके पिता तक की ही जानकारी का पता चल पाता हैं। आगे के पुस्तों के नाम अगर जान भी पाते हैं तो उनकी जानकारी नहीं मिल पाती। बिल्कुल ऐसा ही इस खूबसूरत कश्मीरी परिवार की कुछ  पीढ़ियों की जानकारी मिल पाई है।

         दोस्तों, विशेष विषवश्निय सूत्रों से हमें इसकी जानकारी मिली है। जिसे हम आपसे सांझ करेंगे।

         इन तथ्यों की जानकारी वर्तमान भारत सरकार की अपनी ई-लाइब्रेरी की एक पुस्तक में भी हमें मिल सकती हैं।

खैर, यह खूबसूरत परिवार नेहरू परिवार है। यह परिवार कश्मीरी पंडित है। इस परिवार में रुचि रखने वालों को 17वीं शताब्दि की ओर ले चलते हैं...।

      भारतीय इतिहास के अनुसार इस समय यहां  मुगलों का शासन था। ऐसे में नौकरी की तलाश में कई कश्मीरी परिवार ऊपर से नीचे की ओर दिल्ली आ गए। वहां बहुत कम नौकरी हुआ करती थीं अतः अनेक परिवार नौकरी की तलाश में दिल्ली आ बसे।

        इनमें 'राज कौल साहब' भी थे। जिस नेहरू परिवार को हम जानते हैं ये उनके पूर्वज माने जाते है। यहां से नेहरू परिवार का पता चल पाता है।

राज कौल साहब को दिल्ली में फारुख सियार के यहां जागीर की नौकरी मिली। यह जागीर उन्हें एक नहर के किनारे मिली। यहां इन्हें नेहरू उपाधि मिली और वे नेहरू नामक उपाधि से जाने, जाने लगे।

      नेहरू उपाधि से जुड़े दो कारण बताए गए हैं... 

कहा जाता है कश्मीर के नोरु नामक गांव से वे आए थे। इस कारण यहां उन्हें नोरु से नेहरू कहा जाने लगा। दूसरा कारण चूंकि दिल्ली में एक नहर किनारे इन्हें जागीर की नौकरी मिली थी। इस वजह से नहर से नेहरू शब्द आ गया। लेकिन कश्मीर में वहां के पंडितों को, वहीं की भाषा में भट्ट या खोजा कहा जाता था। कश्मीर में ये कौल ब्राह्मण के रूप में जाने जाते थे।

कई लोगों का कहना है नेहरू उपाधि और उनके पोशाक आपस में मेल नहीं खाते....इस प्रकार की बातें किसी पर अंगुली उठाने वाली होती हैं। ईर्ष्या और जलन से सामने आती हैं।

यह उपाधि नहीं के बराबर सुनने में आता है। सूत्रों में इसकी वज़ह बताई गई है कि कश्मीर में लोगों के अनेक उपाधि हुआ़ करते हैं। पर परिवार कम हुआ करतें थे। इसलिए एक उपाधि (सरनेम) के अनेक परिवार नहीं मिल पाते थे। रही पोशाक की बात,  तो भौगोलिक वातावरण और माहौल लोगों के खान-पान, भाषा व पोशाक पर असर डालता है। 

सर्ट पेंट व टाई ब्रिटिश पोशाकों में से एक है।अगर कोई भारतीय यह पहनता है तो वह अंग्रेज नहीं कहला सकता। वह भारतीय ही रहेगा।

      दिल्ली में यह परिवार करीब सौ-डेढ़ सौ साल बसा रहा। इस बीच पीढ़ियां बढ़ती रही। उनके पौत्र के यहां दो पुत्र हुए। जिनके नाम बताएं जाते हैं- लक्ष्मी कौल और गंगाधर कौल।

राज कौल साहब जी ने उस जमाने में फारसी की अच्छी पढ़ाई की थी। इसी कारण पढ़ाई के प्रति उनकी अलग ही रुची बताई जाती हैं। दिल्ली आकर भी उन्होंने अपने परिवार के बच्चों को उच्च शिक्षित बनाने की कोशिश की ताकि उन्हें भी अच्छी नौकरी मिले।

धीरे-धीरे समय बदला, मुगलों के बाद अंग्रेजों का शासन भारत में शुरू हुआ। ब्रिटिश, गुजरात के सूरत बंदरगाह से होते हुए भारत में प्रवेश किये। ऐसे में नेहरू परिवार दिल्ली छोड़ आगरा आ बसे।

राज कौल साहब के पौत्र के दोनों बेटे शिक्षित थे अतः ब्रिटिश ने इन्हें इस्ट इंडिया कंपनी में वकील के  तौर पर नियुक्त किया और दूसरे बेटे वहां के थाने में अधिकारी के तौर पर नियुक्ति हुए।

समय बीतता गया। भारत के परिवर्तन शासनकाल और स्थान परिवर्तन के मानसिक तनाव के कारण गंगाधर जी की मृत्यु 1861 में हो गई। उनकी पत्नी तब गर्भवती थी। पति के मृत्यु के तीन महीने पश्चात उन्होंने एक पुत्र को जन्म दिया। जिन्हें हम मोतीलाल नेहरू के नाम से जानते है।

दो भाईयों में ये छोटे थे। कहा जाता है बड़े भाई के नौकरी लगने से उन्हीं की छत्रछाया में वे पढ़-लिखकर बड़े हुए। 

कानपुर में अपने पारिवारिक मित्र के देखरेख में उनके पास मोतीलाल नेहरू जी ने वकालत सीखना शुरू किया। कुछ साल वकालत सीखने के बाद उन्हें लगा इलाहाबाद कोर्ट में यह कार्य करना ज्यादा अच्छा रहेगा अतः वे यहां आ गये। 

उस जमाने में वकालत प्रैक्टिस कर वकील बनने के लिए परिक्षा दी जाती थी। उन्होंने यह परिक्षा दी और Top किए। इसके बाद वे इलाहाबाद कोर्ट में वकालत करने लगे।

इस बीच उनकी दूसरी शादी करवा दी गई। कश्मीर में कम उम्र में शादी का प्रावधान था। अतः उनकी दूसरी शादी करवा दी गई। कहते हैं उससे पहले उनकी शादी कराई गई थी लेकिन बीमारी के कारण पत्नी और बेटा दोनों चल बसे।

उसके कुछ समय बाद उन पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा। 42साल की कम उम्र में उनके बड़े भाई की मौत हो गई। जन्म से पहले पिता को खोया फिर पिता समान बड़े भाई को बहुत ही कम उम्र में खो दिया। उस समय उनकी उम्र करीब पच्चीस वर्ष बताई जाती है। काफी बड़ा परिवार... अपना, अपने बड़े भाई का बड़ा परिवार, मां सबों की जिम्मेदारी उन पर आ पड़ी।

ऐसी परिस्थिति में उन्होंने सोचा इससे मुकाबला करने के लिए आय बढ़ानी पड़ेगी।अतः जी जान लगाकर वे कड़ी मेहनत करते रहे और परिवार संभालते रहे। उनकी मेहनत रंग लाई। दिन प्रतिदिन उनकी आमदनी बढ़ती गईं। उस जमाने में देश के चार वरिष्ठ वकीलों में से वे एक थे।

पहले उन्होंने अंग्रेजों के बड़े वकीलों के पड़ोस में  किराया का एक प्लोट लिया और इसके बाद इलाहाबाद में अच्छी जमीन और अच्छा (वातावरण) लोकेशन देख एक पुराना मकान खरीदा। यह पुराना मकान भरत ताज आश्रम के बगल में तथा पास ही बहती गंगा किनारे  विशाल जमीन को घेरे हुए था। इस मकान को 1930 के आप-पास सुंदरीकरण के साथ मोती लाल नेहरू जी ने बनवाया। 

मकान का नाम रखा- आनंद भवन...। 

बचपन से अब तक दुखों को झेलते हुए, कड़ी मेहनत करते हुए जीवन के आनंद प्राप्त करने के लिए यह मकान तैयार किया। 

मकान बनने के बाद इसमें भरा-पूरा परिवार रहने लगा। यहां रिश्तेदार, असहाय लोग भी रहते थे। चौबीसों घंटे यहां चहल-पहल लगी रहती थी।  

नये मकान में जवाहरलाल नेहरू तब आए जब उनकी उम्र दस साल बताई जाती है। इस मकान में इंदिरा गांधी जी का भी जन्म हुआ था। 

आजाद भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू और भारत की पहली महिला प्रधानमंत्री श्रीमति इंदिरा गांधी जी ने अपना जीवन यहां बिताया था।

बाद में यह भव्य मकान भारत सरकार को दान कर दिया गया था। इस बारे में हम आपको विस्तार से अगले लेख में बताने की कोशिश करेंगे।

दोस्तों, एक खूबसूरत परिवार की यह कहानी है। खूबसूरत परिवार के प्रायः समस्त सदस्यों का देश के प्रति खूबसूरत योगदान रहा। 

आपको बता दें कि परिवार की फैलती शाखाओं की एक टहनी श्री राहुल गांधी जी भी है। ऐसे परिवार के सदस्यों के रास्ते के आगे गंगा जल छिड़का जाता है पिछे नहीं ....। 

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